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________________ षड्. समु. भाग-२, परिशिष्ट-३, जैनदर्शन में नयवाद व्यासतो अनेक विकल्पः ।।७ - ४ ।। समासस्तु द्विभेदो द्रव्यार्थिकः पर्यायार्थिकश्च ।।७ - ५ । • वह नय विस्तार और संक्षेप से दो प्रकार का हैं । विस्तार से उस नय के अनेक विकल्प प्रकार हैं, क्योंकि, वस्तु अनंतअंशात्मक है और एक अंश विषयक वक्ता के अभिप्राय विशेष को नय कहा जाता हैं, वह आगे बताया ही है । इसलिए अनन्तांशात्मक वस्तु में एक एक अंश के पर्यवसायी जितने भी वक्ता के अभिप्राय विशेष है, उतने नय 1 इसलिए विस्तार से सोचे तो नय अनेक प्रकार के है, इसलिए ही कहा है कि, "जावइया वयणपहा तावइया चेव हुंति नयवादा | जावइया नयवादा तावइया चेव हुंति परसमया ।। (विशेषावश्यक भाष्य- ४५१) जितने भी ( वस्तु का बोध करनेवाले) वचन मार्ग है, उतने ही नयवाद (नय) है और जितने नय है, उतने ही परसमय (परदर्शन ) हैं । - संक्षेप से सोचे तो नय के दो प्रकार हैं । (१) द्रव्यार्थिक नय और (२) पर्यायार्थिक नय । ( विस्तार से नयो के सभी प्रकार कहने के लिए संभव नहीं है । इसलिए संक्षेप से दो नय और उसके आन्तर्भेदो की विचारणा करेंगे । द्रव्य किसे कहा जाता है ? और द्रव्य के प्रकार कितने हैं ? - पर्याय किसे कहा जाता हैं ? और पर्याय के कितने है ? द्रव्यार्थिक नय के भेद कितने हैं और पर्यायार्थिक नय के प्रकार कितने है ? की अब विचारणा करेंगे। - इस विषय - ४४७ / १०७० • द्रव्यार्थिक नय का लक्षण : - द्रव्यार्थमात्रग्राही नयो द्रव्यार्थिकः (नयरहस्य ) जो नय मात्र द्रव्य को ही ग्रहण करता है - बताता है उसे द्रव्यार्थिक नय कहा जाता है । यह नय द्रव्य को ही तात्त्विक रूप से स्वीकार करता हैं । क्योंकि उसके मतानुसार उत्पाद और विनाश अतात्त्विक है । क्योंकि, वे दोनो क्रमशः आविर्भाव और तिरोभाव ही है । • पर्यायार्थिक नय का लक्षण: पर्यायमात्रग्राही पर्यायार्थिकः- पर्याय मात्र को ग्रहण करनेवाले नय को पर्यायार्थिक नय कहा जाता हैं । यह नय उत्पाद और विनाश स्वरूप पर्याय मात्र को ही स्वीकार करने में तत्पर हैं । उपरांत वह द्रव्य को सजातीय द्रव्य से अतिरिक्त मानता नहीं हैं । यहाँ उल्लेखनीय है कि, पहले बताये अनुसार दोनों नय स्वयं को अनिच्छित अंश का प्रतिक्षेप करते हो वैसे स्पष्ट दिखाई देते है । इसलिए वे नय, दुर्नय की कक्षा में आ जायेंगें, ऐसी किसी को शंका हो सकती है, परन्तु ऐसी शंका उचित नहीं है, क्योंकि तत् तत् नय स्वाभिप्रेत अंश की प्रधानता ( 14 ) बताने तक ही इतर अंश का प्रतिक्षेप करते हैं । परन्तु इतरांश का पूर्ण अपलाप नहीं करते हैं । गौण रूप में तो इतर अंश भी उनको मान्य ही होता है । अब क्रमशः पूर्वोक्त प्रश्न के समाधान के बारे में सोचेंगे । Jain Education International द्रव्यार्थिक नय का ज्ञान करने में द्रव्य के स्वरूप का ज्ञान भी आवश्यक हैं । इसलिए यहाँ द्रव्य का स्वरूप सोचेंगे । द्रव्य का लक्षण बताते हुए 'सप्तभंगी- नयप्रदीप' प्रकरण में कहा है कि, " अथ द्रव्यलक्षणमाह-सत् द्रव्यलक्षणम्, सीदति - स्वकीयान् गुण-पर्यायान् व्याप्नोतीति सत्, उत्पाद-व्ययध्रौव्ययुक्तम् (सत्), अर्थक्रियाकारि च सत्;" "यदेवार्थक्रियाकारि तदेव परमार्थसत् । यच नार्थक्रियाकारि तदेव परतोऽप्यसत् ।" इति । निजनिजप्रदेशसमूहैरखण्डवृत्त्या स्वभाव-विभावपर्यायान् द्रवति, द्रोष्यति, अदुद्रुवदिति द्रव्यम् । गुणपर्यायवद् द्रव्यं वा । गुणाश्रयो द्रव्यं वा । 14. न चैवं इतरांशप्रतिक्षेपित्वात् दुर्नयत्वं, तत्प्रतिक्षेपस्य प्राधान्यमात्र एवोपयोगात् ।। (नयरहस्य) For Personal & Private Use Only www.jalnelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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