SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 47
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ षड्दर्शन समुच्चय भाग-२, श्लोक - ४५-४६, जैनदर्शन की सिद्धि भी तृतीय अनुमान से करनी पडेगी । तृतीय अनुमान के हेतु के विशेषण की सिद्धि चौथे अनुमान से माननी पडेगी... इस तरह से उत्तरोत्तर अप्रामाणिक कल्पना से अनवस्था दोष आता है 1 २० / ६४३ इस तरह से कार्यत्व हेतु के कृतबुद्धि - उत्पादकत्वरुप विशेषण की सिद्धि होती न होने से कार्यत्वहेतु विशेषणासिद्ध बनता है । ईश्वरवादि ( पूर्वपक्ष ) : हम पहले कह चुके है कि जो जमीन को खोदकर, उस गड्डे को वैसे को वैसा भर दिया जाये तो भी कृतबुद्धि नहीं होती है। इसलिए जो कार्य हो वह कृतबुद्धि को उत्पन्न करे ऐसा कोई नियम नहीं है। जैन ( उत्तरपक्ष ) : आपकी बात उचित नहीं है। क्योंकि जो जमीन को खोदकर वैसी की वैसी पुनः भर देने से वह जमीन बिना खुदी हुए जमीन के समान बन जाती है। इसलिए वहां कृतबुद्धि होती नहिं है । परंतु पृथ्वी आदि में कोई अकृत्रिम वस्तु का सारुप्य नहीं है कि जिसमें पृथ्वी इत्यादि में अकृत्रिमत्व की बुद्धि उत्पन्न हो और इससे पृथ्वी इत्यादि में कृतबुद्धि उत्पन्न न हो। अर्थात् पृथ्वी इत्यादि में अकृत्रिम वस्तु का सारुप्य नहिं है। इसलिए उसमें कृतबुद्धि न होने में कोई कारण नहिं है, फिर कृतबुद्धि क्यों नहीं होती ? उपरांत आपने कोई अकृत्रिम पृथ्वी मानी नहीं है और यदि कोई अकृत्रिम पृथ्वी का स्वीकार करोंगे और पृथ्वी इत्यादि की दूसरे अकृत्रिम पृथ्वी के साथ समानता मानोंगे तो पृथ्वी आदि में कार्यत्व हेतु असिद्ध बन जायेगा। क्योंकि अकृत्रिम पृथ्वी किसीसे बनाई गई न होने से कार्य नहीं है । उपरांत पृथ्वी इत्यादि को अकृत्रिम मानने से "पृथ्वी इत्यादिक ईश्वरकृत है ।" ऐसे आपके सिद्धांत का अपलाप होगा । अर्थात् अपसिद्धांत नामका दोष आ पडेगा । इस तरहसे कार्यत्व हेतु का "कृतबुद्धि-उत्पादकत्व" रुप विशेषण असिद्ध होने से कार्यत्व हेतु विशेषणासिद्धिदोष से दूषित बन जाता है । सिध्यतु वा, तथाप्यसौ विरुद्धः, घटादाविव शरीरादिविशिष्टस्यैव बुद्धिमत्कर्तुरत्र प्रसाधनात् । नन्वेवं दृष्टान्तदान्तिकसाम्यान्वेषणे सर्वत्र हेतूनामनुपपत्तिरिति चेत्, न । धूमाद्यनुमाने महानसेतरसाधारणस्याग्नेः प्रतिपत्तेः । अत्राप्येवं बुद्धिमत्सामान्यप्रसिद्धेर्न विरुद्धत्वमित्यप्ययुक्तं, दृश्यविशेषाधारस्यैव तत्सामान्यस्य कार्यत्वहेतोः प्रसिद्धेर्नादृश्यविशेषाधारस्य, तस्य स्वप्नेऽप्यप्रतीतेः, खरविषाणाधारतत्सामान्यवत् । ततो यादृशात्कारणाद्यादृशं कार्यमुपलब्धं तादृशादेव तादृशमनुमातव्यं, यथा यावद्धर्मात्मकाद्वह्नेर्यावद्धर्मात्मकस्य धूमस्योत्पत्तिः सुदृढप्रमाणात्प्रतिपन्ना तादृशादेव धूमात्तादृशस्यैवाग्नेरनुमानमिति 1 एतेन साध्यसाधनयोर्विशेषेण व्याप्तौ गृह्यमाणायां सर्वानुमानोच्छेद-प्रसक्तिः' इत्याद्यपास्तं द्रष्टव्यमिति । E-19 तथाऽकृष्टप्रभवैस्तरुतृणादिभिर्व्यभिचार्ययं हेतुः । (E-19 ) - तु० पा० प्र० प० । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy