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________________ ४३६/१०५९ षड्. समु. भाग-२, परिशिष्ट-१, जैनदर्शन का विशेषार्थ अधिक संख्यात भव में भी मोक्ष पाता है । यहाँ गाथा में अपार्ध शब्द कहा वह अप अर्थात् व्यतीत हुआ है प्रथम अर्ध भाग जिसका ऐसा अंतिम अर्ध भाग वह अपार्थ अथवा अप अर्थात् किंचित् न्यून ऐसा अर्थ पुद्गल परावर्त्त वह अपार्थ पुद्गल परावर्त्त ऐसे दो अर्थ हे उपरांत द्रव्यादि चार प्रकार के पुद्गलपरावर्त में से यहाँ सूक्ष्म क्षेत्र पुद्गल परावर्त का । अर्ध भाग जाने, परन्तु द्रव्यादि तीन का नहीं । पुद्गल परावर्त्तन क्या है ? उस्सप्पिणी अनंता, पुग्गल परियट्टओ मुणेयव्वो । तेऽणंताऽतीअद्धा, अणागयद्धा अनंतगुणा ।।५४।। अनन्त उत्सर्पिणी तथा अवसर्पिणी का १ पुद्गल परावर्त काल जानना । ऐसे अनन्त पुद्गल परावर्त का अतीतकाल और उससे अनन्तगुना अनागतकाल हैं ।।५४।। (नव.प्र.) विशेषार्थ सुगम हैं, तो भी इस स्थान पर अति उपयोगी होने से पुद्गल परावर्त का संक्षिप्त स्वरूप कहा जाता है। : यहाँ(76) आठ प्रकार के पुद्गल परावर्त्त हैं, परन्तु सम्यक्त्व के संबंध में जो ० ।। (अर्ध) पुद्गल परावर्त्त संसार बाकी रहना कहा है वह सूक्ष्म क्षेत्र पुद्गल परावर्त्त है। उसका किंचित् स्वरूप इस प्रकार हैं। सूक्ष्म क्षेत्र 'पुद्गल परावर्त्त का स्वरूप : वर्तमान समय में कोई जीव लोकाकाश के अमुक नियत आकाश प्रदेश में रहकर मृत्यु को प्राप्त हुआ । पुनः कुछ काल बीतने के बाद वह जीव स्वाभाविक रुप से उस नियत आकाश प्रदेश की पंक्ति में रहे हुए साथ के आकाशप्रदेश में मृत्यु हुई, उसके बाद पुनः कुछ काल में वही जीव उसी पंक्ति में नियत आकाश प्रदेश की साथ के तीसरे आकाश प्रदेश में मृत्यु को प्राप्त हुआ । इस प्रकार से बारबार मृत्यु पाने द्वारा उस असंख्य आकाशप्रदेश की संपूर्ण (जहाँ से गिनती की शुरुआत की है, वहाँ से आगे की संपूर्ण) श्रेणी- पंक्ति पूर्ण करे, उसके बाद उस पंक्ति के साथ में रही हुई दूसरी तिसरी यावत् आकाश के उस प्रतर में रही हुई साथ में रही हुई साथ की असंख्या श्रेणियाँ पहली पंक्ति की तरह मरण द्वारा अनुक्रम से पूर्ण करे, उसके बाद दूसरे आकाश प्रतर की असंख्य श्रेणीयाँ म द्वारा पूर्ण करे और उस प्रकार यावत् लोकाकाश के असंख्य प्रतर क्रमशः पूर्ण करे और लोकाकाश का एक प्रदेश भी मरण द्वारा (अपूर्ण) बाकी न रहे, उसी तरह से विवक्षित एक जीव के मरण द्वारा संपूर्ण लोकाकाश क्रमशः पूर्ण करने में जितना काल (जो अनन्त काल) लगे, उस अनन्त काल का नाम १ सूक्ष्म क्षेत्रपुद्गल परावर्त कहा जाता है। ऐसे अनन्त पुद्गल परावर्त्त एक जीवने व्यतीत किये है और भविष्य में करेंगे परन्तु यदि अन्त र्मु० काल मात्र भी जीव को सम्यक्त्व प्राप्त हो तो उत्कृष्ट से (सू० क्षे० पुद्गल परा० रूप) उस एक अनन्त काल में से अर्ध अनन्तकाल ही बाकी रहे कि जो काल व्यतीत हुए कालरूप महा समुद्र के एक बिंदु जितना भी नहीं है और यदि सम्यक्त्व न पाये तो भविष्य में उस जीव को इस संसार में उससे भी ज्यादा अनन्त सूक्ष्म क्षेत्र पुद्गल परावर्त्त भटकना है ही । 76. पुद्गल परावर्त्त द्रव्य से क्षेत्र से काल से और भाव से ऐसे ४ प्रकार से हैं। वह भी प्रत्येक सूक्ष्म और बादर भेद से दो-दो प्रकार के होने से ८ प्रकार का पुद्गल परावर्त है, उसमें से यहाँ सम्यक्त्व के संबंध में जो ० ।। पुद्गल परावर्त्त संसार बाकी रहना कहा है, वह सूक्ष्म क्षेत्र पुद्गल परावतं जानना । यहाँ पुद्गल अर्थात् चौदह राज लोक में रहे हुए सर्व पुद्गलों को एक जीव औदारिकादि कोई भी वर्गणा रूप से (आहार बिना) ग्रहण करे उसमें जितना काल लगे वह द्रव्य पुद्गल परावर्त, लोकाकाश के प्रदेशो को एक जीव मरण द्वारा स्पर्श कर करके जितना काल लगे उतने काल का नाम क्षेत्र पुद्गल परावर्त, उत्सर्पिणी तथा अवसर्पिणी के समयो को एक जीव बारबार मरण द्वारा स्पर्श कर करके उसमें जितना काल हो वह काल पुद्गल परावर्त्त और रस बंध के अध्यवसाय एक जीव पूर्वोक्त रुप से मरण द्वारा स्पर्श कर करके छोडे उसमें जो काल लगे वह भाव पुद्गल परावर्त्त कहा जाता I हैं उसमें किसी भी अनुक्रम के बिना पुद्गलादिक को जैसे तैसे स्पर्श कर-करके रखने से (पूर्ण करने से चार बादर पुद्गल परावर्त होता है और क्रमशः स्पर्श करके छोड़ने से चार सूक्ष्म पुद्गल परावर्त होते हैं। चारो पुद्गल परावर्त्त में अनन्त अनन्त कालचक्र व्यतीत होते हैं । Jain Education International For Personal & Private Use Only - www.jalnelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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