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________________ ४२४/१०४७ षड्. समु. भाग-२, परिशिष्ट-१, जैनदर्शन का विशेषार्थ • ध्यान - शुभ ध्यान - २ प्रकार से ध्यान अर्थात् योग की एकाग्रता अथवा योगनिरोध ऐसे दो अर्थ हैं । वहाँ ४ प्रकार का धर्मध्यान और ४ प्रकार का शुक्लध्यान है । वह यहाँ अभ्यन्तर तपरूप निर्जरातत्त्व में माना जाता हैं और ४ प्रकार का आर्तध्यान तथा ४ प्रकार का रौद्रध्यान संसारवृद्धि करनेवाला होने से यहाँ निर्जरातत्त्व में नहीं गिने जायेगे । उस धर्म तथा शुक्ल ध्यान के ४-४ भेद हैं । आर्त्तध्यान के चार प्रकार चार प्रकार का आर्त्तध्यान इस प्रकार से है स्वजनादि इष्ट वस्तु का वियोग होने से, जो चिन्ता शोक आदि हो वह इष्टवियोग आर्त्तध्यान, अनिष्ट वस्तु के संयोग से “उस वस्तु का वियोग कब होगा ?” ऐसी चिंता करना वह अनिष्ट संयोग आर्त्तध्यान, शरीर में रोग होने से जो चिंता हो, वह चिंता आर्त्तध्यान और भविष्य के सुख की चिंता करना और की हुई तपश्चर्या का निदान = भौतिक रिद्धि-सिद्धि की प्रार्थना करना वह अग्रशोच आर्त्तध्यान । रौद्रध्यान के चार प्रकार: प्राणीओं की हिंसा का चिंतन करना, वह हिंसानुबंधि, असत्य बोलने का चितवन वह मृषानुबन्धि, चोरी करने का चिंतवन वह स्तेयानुबन्धि और परिग्रह के रक्षण के लिए अनेक चिंता करना, वह संरक्षणानुबन्धि रौद्रध्यान I धर्मध्यान के चार प्रकार: "श्री जिनेश्वर की आज्ञा वचन सत्य है” ऐसी श्रद्धापूर्वक चिंतवन करना, वह आज्ञाविचय, "राग आदिक आश्रव इस संसार में अपायभूत-कष्टरूप है" ऐसा चितवन करना, वह अपायविचय, “सुख, दुःख वह पूर्व कर्म का विपाक (फल) है" ऐसा चिंतन करना वह विपाकविचय और षद्रव्यात्मक लोक का स्वरूप सोचना वह संस्थान विचय धर्मध्यान, इस प्रकार से ४ भेद हैं । - शुक्लध्यान के चार प्रकार इस ध्यान का प्रथम भेद पृथक्त्व वितर्क सविचार हैं । पृथक्त्व अर्थात् भिन्नता, वह जो द्रव्य, गुण अथवा पर्याय का ध्यान चालू हो उसी द्रव्यगुणपर्याय में स्थिर न रहते हुए, वह ध्यान अन्य द्रव्य, गुण, पर्याय में चला जाता है। इसलिए पृथक्त्व तथा श्रुतज्ञानी को ही यह ध्यान (विशेषतः पूर्वधर लब्धिवंत को होने से ) पूर्वगत श्रुत के उपयोगवाला होता है इसलिए वितर्कः श्रुतम् इति वचनात् वितर्क और एक योग से दूसरे योग में, एक अर्थ से, दूसरे अर्थ में और एक शब्द से दूसरे शब्द में अथवा शब्द से अर्थ में और अर्थ से शब्द में, इस ध्यान का विचार अर्थात् संचार हो, इसलिए ( विचारोऽर्थव्यंजनयोगसंक्रांति : इति वचनात् ) सविचार, इसलिए पृथक्त्ववितर्कसविचार कहा जाता है । (यह ध्यान श्रेणिवंत को ८ में से १२ वे गुणस्थानक तक होता हैं ।) - तथा पूर्वोक्त पहले भेद से विपरित लक्षणवाला वायु रहित दीपकवत् निश्चल एक ही द्रव्यादिक के चिंतनवाला होने से अपृथक्त्व अर्थात् एकत्वपन, परन्तु यह ध्यान भी पूर्वधर को श्रुतानुसारी चिंतनवाला होने से वितर्क सहित और अर्थ व्यंजन और योग की पहले कहे अनुसार संक्रान्ति संचरण न होने से अविचारवाला है । इसलिए यह दूसरा शुक्लध्यान एकत्व (अपृथक्त्व) वितर्क अविचार कहा जाता हैं । इस ध्यान के अंत में केवलज्ञान होता हैं । - तथा - तेरहवें गुणस्थान के अंत में मन-वचन-योग रुंधने - रोकने के बाद काययोग रुंधते समय सूक्ष्म काययोगी केवली को सूक्ष्मक्रियाअनिवृत्ति नामका तीसरा शुक्लध्यान हैं अर्थात् इस ध्यान में सूक्ष्म काययोग रूप क्रिया होती है। और ध्यान पीछे मोड़नेवाला (रखनेवाला) नहीं होने से, उसका सूक्ष्मक्रियाअनिवृत्ति नाम हैं । Jain Education International तथा शैलेशी अवस्था में (१४वें गुणस्थान पर अयोगी को) सूक्ष्मकाय क्रिया का भी विनाश होता है और वहाँ से पुनः गिरना भी नहीं है, इसलिए उस अवस्था में व्युच्छिन्न क्रिया अप्रतिपाती नामका चौथा शुक्लध्यान होता है । यह चौथा For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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