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________________ षड्दर्शन समुच्चय भाग-२, परिशिष्ट-१, जैनदर्शन का विशेषार्थ ४१३/१०३६ अजीव को रागादिक से पूछने से जीव प्राश्निकी तथा अजीव प्रानिकी ऐसे दो प्रकार की कही हैं । (यह क्रिया प्रमादी अथवा सरागी जीव को होने से छठे अथवा १०वें गुणस्थानक तक हैं ।) १३. अन्य जीव अथवा अजीव के आधार पर जो क्रिया हो वह प्रातित्यकी क्रिया दो प्रकार की है । वहाँ दूसरे के हस्ति, अश्व आदि ऋद्धि देखकर रागद्वेष हो वह जीवप्रातित्यकी और आभूषणादि ऋद्धि देखकर रागद्वेष हो वह अजीवप्रातित्यकी अथवा स्तंभादिक में मस्तक पटका ने से स्तंभादि अजीव के निमित्त से जो द्वेषादिक हो वह भी अजीव प्रातित्यकी क्रिया हैं । यह क्रिया पाँचवें गुणस्थानक तक कही हैं । यहाँ प्रतीत्य अर्थात् आश्रय से, ऐसा शब्दार्थ हैं । १४. समन्तात् अर्थात् चारो तरफ से उपनिपात अर्थात् लोक का आना अथवा त्रस जंतु का आना वह सामंतोपनिपातिकी क्रिया, वह भी जीव और अजीवभेद से दो प्रकार की हैं । श्रेष्ठ हस्ति अश्व आदिक लाने से अनेक लोग देखने को मिले और उनकी प्रशंसा सुनकर खुद प्रसन्न हो तथा खराबी कहे तो द्वेषी हो वह जीवसामन्तोपनिपातिकी और इस तरह से अजीव वस्तु संबंधी अजीवसामन्तोप० क्रिया होती है । नाटक, सिनेमा, खेल, तमाशा आदि कुतूहल दिखानेवाले को भी यह क्रिया होती है, तथा घी-तैलादिक के भाजन (पात्र) खुले रखने से उसमें चारो तरफ से उडते त्रस जीव आकर गिरते हैं । इसलिए वह भी सामन्तोपनिपातिकी क्रिया ऐसा दूसरा अर्थ होता हैं । (यह क्रिया आरंभादिक के अत्याग के कारण होने से पाँचवें गुणस्थानक तक हैं । तत्त्वार्थ वृत्ति में छठे गुणस्थानक तक भी कही हैं । वह उपर कहे हुए अर्थ से भिन्न अर्थ की अपेक्षा से हैं ।) १५. अपने हाथ से शस्त्रादिक न बनाते हुए राजादिक की आज्ञा से दूसरे के पास शस्त्र आदि बनवाना इत्यादि रूप में नैशस्त्रिकी क्रिया कही जाती है । अथवा निसर्जन करना अर्थात् निकालना अथवा फेंकना अथवा त्याग करना वह नैसृष्टिकी क्रिया दो प्रकार से है । वहाँ यन्त्रादि द्वारा कुँओ में से पानी निकालकर कुँआ खाली करना वह जीवनसृष्टिकी और धनुष्य में से तीर फेंकना वह अजीव नैसृष्टिकी क्रिया, अथवा मुनि के संबंध में सुपात्र शिष्य को निकाल देने से जीवनसृष्टिकी और शुद्ध आहारादि को परठना (त्याग करना) अजीवनसृष्टि की क्रिया जानना । (यह क्रिया पहले दो अर्थ अनुसार गृहस्थ को पाँचवें गुणस्थान तक कही है । परन्तु दूसरे अर्थ अनुसार छठे गुण तक भी कही हैं ।) १६. अपने हाथ से ही जीव का घात आदि करना वह स्वाहस्तिकी क्रिया दो प्रकार से है । वहाँ अपने हाथ द्वारा अथवा हाथ में रहे हुए कोई पदार्थ द्वारा अन्य जीव को मारे यह जीवस्वाहस्तिकी और अपने हाथ द्वारा अथवा हाथ में रहे हुए कोई भी पदार्थ द्वारा अजीव को मारे उसे अजीवस्वाहस्तिकी क्रिया कही जाती है । सेवक आदिक को करने योग्य काम मालिक क्रोधादि से स्वयं ही कर ले तो वह भी स्वाहस्तिकी क्रिया तत्त्वार्थ टीकामें कही हैं । (यह क्रिया पाँचवें गुणस्थानक तक हैं ।)(36) १७. जीव और अजीव को आज्ञा करके उनके द्वारा कुछ मंगवाना वह आज्ञापनिकी क्रिया अथवा आनयनिकी क्रिया, जीव-अजीव भेद से दो प्रकार की हैं (और वह पाँच गुणस्थानक तक हैं ।) १८. जीव अथवा अजीव को विदारने से (फाडने से - भेदने से) वैदारणिकी क्रिया अथवा वितारणा अर्थात् वंचना - छलना करना वह वैतारणिकी क्रिया, वह जीव-अजीव भेद से दो प्रकार की कही हैं, सद्गुणी को दुर्गुणी कहना, प्रपंची दुभाषियापन करना, जीव तथा अजीव के भी गुण-दोष कहना, कटुवचन कहना, कलंक लगाना, आघात लगे ऐसी खबर देना इत्यादि आश्रव इस क्रिया में अन्तर्गत होता है । (और यह क्रिया बादरकषायोदय प्रत्ययिक होने से नौवें गणस्थानक तक हैं ।) 36.मिच्छादसणवत्ती, अपचक्खाणी य दिट्ठि पुट्ठि य । पाडुच्चिय सामंतो - वणीअ नेसत्थि साहत्थी ।।२३।। (नव.प्र.) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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