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________________ ४१० / १०३३ षड्. समु. भाग-२, परिशिष्ट- १, जैनदर्शन का विशेषार्थ तथा पहले संस्थान से अतिरिक्त ५ संस्थान इस प्रकार है- (७८) न्यग्रोध अर्थात् वटवृक्ष, उसकी तरह नाभि के उपर का भाग लक्षण युक्त और नीचे का भाग लक्षण रहित वह न्यग्रोध संस्थान, (७९) नाभि के नीचे का भाग लक्षणयुक्त और उपर का भाग लक्षण रहित वह सादि संस्थान (८०) हाथ-पैर मस्तक और कटि (कमर) ये चार लक्षण रहित हो और उदर इत्यादि लक्षणयुक्त हो वह वामन संस्थान (८१) इससे विपरीत हो, वह कुब्ज संस्थान और (८२) सर्व अंग लक्षण रहित हो, वह हुंडक संस्थान, ये पाँचो संस्थान, बंधे हुए तत् तत् पापकर्म के उदय से प्राप्त होते हैं । ( 32 ) इस पापतत्त्व के ८२ भेद में ५ ज्ञानावरणीय ९ दर्शनावरणीय, १ वेदनीय, २६ मोहनीय, १ आयुष्य, १ गोत्र, ५ अन्तराय और ३४ नामकर्म के भेद हैं । उस पापतत्त्व के ८२ और पुण्यतत्त्व के ४२ भेद मिलकर १२४ कर्मभेद होते हैं, परन्तु वर्णचतुष्क दोनो तत्त्व में गिनने से १ वर्णचतुष्क के बाद शेष १२० कर्म का बंध इन दोनों तत्त्व में संग्रहित किया है। इसलिए बँधी हुई शुभ-अशुभ कर्म प्रकृति पुण्य-पापतत्त्व हैं । - स्थावरदशक : पहले बताये हुए स्थावरदशक के नाम इस प्रकार हैं जिससे चलने फिरने की शक्ति का अभाव अर्थात् एक स्थान पर स्थिर रहना प्राप्त हो वह स्थावर, जिससे इन्द्रिय के विषय में न आये ऐसा सूक्ष्मत्व प्राप्त हो वह सूक्ष्म, जिससे स्वयोग्य पर्याप्तियाँ पूर्ण न हो वह अपर्याप्त, जिससे अनन्त जीवो के बीच एक ही शरीर प्राप्त हो वह साधारण अर्थात् निगोदपन प्राप्त हो । तथा जिससे भ्रू-जिह्वा आदि अस्थिर अवयवो की प्राप्ति हो, वह अस्थिर, जिससे नाभि की नीचे के अंग को अशुभता (दूसरे जीव के स्पर्श होने से रोष पाये ऐसी अशुभता ) की प्राप्ति हो वह अशुभ, जिससे जीव को देखने से भी उद्वेग हो और उपकारी होने पर भी जिसका दर्शन अरुचिकर लगे वह दौर्भाग्य, कौओ जैसा अशुभ स्वर हो वह दुःस्वर, जिससे युक्तिवाले वचन का भी लोक अनादर करे वह अनादेय और अपकीर्ति की प्राप्ति वह अपयश, ये स्थावर आदि १० भेद, वे पापकर्म का बंध होने से होते है । ये १० भेद पूर्वोक्त त्रस आदि १० भेद के अर्थ से विपरित अर्थवाले जाने 1 (33) (५) आश्रवतत्त्व : जिस मार्ग से तालाब में पानी आता है, उस मार्ग को जैसे नाला कहते हैं, वैसे जिसके द्वारा कर्मो का आगमन आत्मा के विषय में (आत्मा में) हो उसे आश्रव कहा जाता हैं । उस आश्रव के नीचे बताये अनुसार ४२ प्रकार हैं । (१-५) पाँच इन्द्रियाँ स्पर्शनेन्द्रिय, रसना इन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय, चक्षुरिन्द्रिय और श्रोत्रेन्द्रिय ये पाँच इन्द्रियों के क्रमशः ८-५-२-५ और ३ मिलकर २३ विषय है । २३ विषय आत्मा को अनुकूलता हो ऐसे प्राप्त हो, तो उससे आत्मा सुख मानता हैं और प्रतिकूलता हो ऐसे प्राप्त हो, तो दुःख मानता हैं । उससे कर्म का आश्रव (= आगमन) होता है । (६-२१) कषाय - क्रोध, मान, माया और लोभ ये चार कषाय अथवा अनंतानुबन्धि क्रोध आदि भेद द्वारा १६ कषाय में आत्मा अनादिकाल से प्रवृत्त हैं, इसलिए कर्म का आश्रव भी अनादिकाल से चालू रहा है । उसमें भी आत्मा जब देव, गुरु, धर्म के राग में वर्तन करता है और देव, गुरु धर्म का नाश करनेवाले के प्रति क्रोध आदि यथायोग्य द्वेषभाव में वर्तन करता है, तब प्रशस्त काषायी होने से शुभ कर्म का आश्रव करता है और स्त्री, परिवार आदि सांसारिक राग में और सांसारिक द्वेष में वर्तन करता हैं, तब अप्रशस्त कषाय होने से अशुभ कर्म का आश्रव करता हैं । यहाँ कष अर्थात् संसार का आय अर्थात् लाभ, जिससे हो, उसे कषाय कहा जाता हैं । - 32. इगबितिचउजाईओ, कुखगइ उवघाय हुंति पावस्स अपसत्थं वन्नचऊ, अपढमसंघयणसंठाणा ।।१९।। 33. थावर सुहुम अपज्जं साहारणमथिरमसुभदुभगाणि दुस्सरणाइज्जजसं थावरदसगं विवज्जत्थं ।। २० ।। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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