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________________ ४०६/१०२९ षड्. समु. भाग-२, परिशिष्ट-१, जैनदर्शन का विशेषार्थ १. पात्र को अन्न देने से, २. पात्र को पानी देने से, ३. पात्र को स्थान देने से ४. पात्र को शयन देने से ५. पात्र को वस्त्र देने से ६. मन के शुभ संकल्परूप व्यापार से ७. वचन के शुभ व्यापार से ८. काया के शुभ व्यापार से ९. देव-गुरु को नमस्कार इत्यादि करने से श्री तीर्थंकर भगवंत से लेकर मुनि महाराज तक के महात्मा पुरुष सपात्र, धर्मी गृहस्थ पात्र, उपरांत अनुकम्पा करने योग्य अपाहिज आदि जीव भी अनुकम्प्य पात्र और शेष सर्व अपात्र माने, यह पुण्यतत्त्व मुख्यतः गृहस्थ को ही उपादेय है। इसलिए मोक्ष की आकांक्षा से पूर्वोक्त ९ प्रकार से दान आदिक मोक्ष को अनुकूल कार्य करे । स्वपर हितार्थ जिनेन्द्र शासन की प्रभावना करे, शक्ति हो तो शासनद्रोही को भी योग्य शिक्षा से निवारे, विवेकपूर्वक अनेक देवमंदिर बनवायें, अनेक जिनेन्द्र प्रतिमायें भरायें, श्री जिनेन्द्र प्रभु के चैत्य के निर्वाह अर्थ विवेकपूर्वक देवद्रव्य की वृद्धि करे, अनेक पौषधशालायें रचे, श्री जिनेन्द्र की महापूजा करे, स्वाभाविक रुप से दुःखी हुए साधर्मिक बंधुओं को तत्काल और परिणामतः धर्म पोषक हो उस प्रकार विवेकपूर्वक सहाय करके सम्यग मार्ग में स्थिर रखना, इत्यादि प्रकार से यह जीव पुण्यानुबन्धि पुण्य उपार्जन करता है, वह पुण्यानुबन्धि पुण्य मोक्षमार्ग में मार्गदर्शक समान हैं । पंचाग्नि तपश्चर्या इत्यादि अज्ञान कष्ट से भी यद्यपि पुण्य उपार्जन होता हैं, परन्तु एक ही भव में सुख देनेवाले और परंपरा से संसार वृद्धि करानेवाले होने से तात्त्विक पुण्य नहीं हैं । अब इस नौ प्रकार के निमित्तो से बयालीस प्रकार से पुण्य बंधता है। वे प्रकार देखेंगे । __ पुण्य के ४२ प्रकार : (१) सुख का अनुभव करानेवाला कर्म सातावेदनीयकर्म, (२) उत्तम वंश कुल जाति में जन्म करानेवाला कर्म उच्चगोत्रकर्म, (३) मनुष्यपन के संजोग देनेवाला कर्म मनुष्य गति नामकर्म, (४) मनुष्यगति तरफ खिंच जानेवाला कर्म मनुष्यानुपूर्वीनामकर्म, (५) देवत्व के संजोग दिलानेवाला कर्म देवगति नामकर्म, (६) देवगति की ओर खींचनेवाला कर्म देवानुपूर्वी नामकर्म, (७) पाँच इन्द्रिय की जाति दिलानेवाला कर्म पञ्चेन्द्रिय शरीर नामकर्म, (८) औदारिक शरीर दिलानेवाला कर्म औदारिक शरीर नामकर्म, (९) वैक्रिय शरीर दिलानेवाला कर्म वैक्रिय शरीर नामकर्म, (१०) आहारक शरीर दिलानेवाला कर्म आहारक शरीर नामकर्म, (११) तैजस शरीर दिलानेवाला कर्म तैजस शरीरनामकर्म, (१२) कार्मण शरीर दिलानेवाला कर्म कार्मण शरीरनामकर्म, (१३) औदारिक शरीर में अंगोपाग दिलानेवाला औदारिक अंगोपांग नामकर्म, (१४) वैक्रिय शरीर में अंगोपांग दिलानेवाला वैक्रिय अङ्गोपाङ्ग नामकर्म, (१५) आहारक शरीर में अंगोपांग दिलानेवाला आहारक अङ्गोपाङ्ग नामकर्म, (१६) हड्डीयो का मजबूत से मजबूत शरीराकार दिलानेवाला कर्म वज्रऋषभ नाराच संहनन नामकर्म, (१७) शरीर का उत्तमोत्तम आकार दिलानेवाला समचतुरस्र संस्थान नामकर्म ।(25) (१८-२१) श्वेत, रक्त और पीत ये ३ शुभवर्ण हैं, सुरभिगंध वह शुभगंध हैं । आम्ल, मधुर और कषाय ३ शुभरस हैं, तथा लघु, मृदु, उष्ण और स्निग्ध ये ४ शुभ स्पर्श हैं, इसलिए जिनका शरीर, ये शुभवर्णादि युक्त हो वह पुण्य का उदय कहा जाता हैं तथा (२२) जीव को अपना शरीर लोहे के समान अति भारी और वायु समान अति लघु हलका नहीं लगता वह अगुरुलघु, तथा (२३) सामनेवाला पुरुष बलवान हो तो भी जिसकी आकृति देखकर निर्बल हो - क्षोभ पाये, ऐसा तेजस्वी वह पराघात के उदय से होता है (२४) जिससे सुखपूर्वक श्वासोच्छ्वास लिये जाये वह श्वासोच्छ्वास । (२५) स्वयं शीत फिर भी जिनका प्रकाश उष्ण हो वह सूर्यवत् आतप, (२६) स्वयं शीतल और जिनका प्रकाश भी शीतल वह चन्द्र प्रकाशवत् उद्योत, (२७) वृषभ (बैला), हंस तथा हस्ति (हाथी) आदिक की तरह सुन्दर धीमी-चाल हो वह शुभविहायोगति (२८) अपने शरीर के अवयव यथार्थ स्थान पर रचे जाये वह निर्माण (२९-३८) जिससे त्रस इत्यादि दश शुभभाव की प्राप्ति (जो आगे कही जायेगी) 25.सा उच्चगोअ मणुदुग, सुरदुग पंचिदिजाइ पणदेहा, आइतितणूणुवंगा, आइमसंघयणसंठाणा ।।१५।। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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