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________________ षड्दर्शन समुच्चय भाग-२, परिशिष्ट-१, जैनदर्शन का विशेषार्थ ४०३/१०२६ प्रयोग से (जीव प्रयत्न से) और विश्रसा से (स्वभाव से ही) द्रव्य में नये पुरानेपन की जो परिणति होना, वह परिणामपर्याय अथवा द्रव्य का और गुण का जो स्वभाव स्वत्व वह परिणाम, ऐसा तत्त्वार्थ भाष्य में कहा है । यह परिणाम पर्याय सादि और अनादि ऐसे दो प्रकार का हैं । उसमें से ४ द्रव्य के गतिसहायकादि स्वभाव अनादि अनन्त परिणामी हैं और पुद्गल का स्वभाव सादि सान्त परिणामी हैं । उपरांत अपवाद के रूप में जीव के जीवत्वादि परिणाम यद्यपि अनादि अनन्त हैं, परन्तु योग और उपयोग ये दो स्वभाव सादि सान्त परिणामी हैं, ऐसा श्री तत्त्वार्थ भाष्य में कहा हैं । ___ द्रव्यो की भूतकाल में हुई, वर्तमानकाल में होती और भविष्यकाल में होनेवाली जो चेष्टा, वह क्रिया पर्याय हैं । ऐसा लोकप्रकाश में कहा हैं और श्री तत्त्वार्थभाष्य में कहा हैं कि प्रयोग से, विश्रसा से और मिश्रसा से द्रव्यो की जो गति (अर्थात् स्वप्रवृत्ति) वह प्रयोगादि तीन प्रकार का क्रियापर्याय हैं । जिसके आश्रय से द्रव्य में पूर्वभाव का व्यपदेश हो, वह परत्व पर्याय और पश्चात् भाव का व्यपदेश हो वह अपरत्व पर्याय कहा जाता हैं । वह परत्वापरत्व पर्याय प्रशंसाकृत, क्षेत्रकृत और कालकृत ऐसे तीन प्रकार से है । उसमें धर्म वह पर (श्रेष्ठ) और अधर्म वह अपर (हीन), ऐसे कथन वह प्रशंसाकृत परत्वापरत्व, दूर रहे हुए पदार्थ वह पर और पास में रहा हुआ पदार्थ वह अपर, वह कथन क्षेत्रकृत् परत्वापरत्व हैं; तथा १०० वर्षवाला वह पर (बडा) और १० वर्षवाला वह अपर (छोटा), वह कथन कालकृत् परत्वापरत्व कहा जाता हैं । वे तीन प्रकार के परत्वापरत्व में केवल कालकृत् परत्वापरत्व वही वर्त्तनादि पर्यायात्मक होने से काल द्रव्य में ग्रहण किया जाता हैं । ___ इस प्रकार वर्तना इत्यादि पाँचो पर्याय निश्चयकाल कहा जाता हैं । वे वर्तना इत्यादि यद्यपि द्रव्य के पर्याय हैं, तो भी कोई अपेक्षा से पर्यायो को भी द्रव्य का उपचार होने से कालद्रव्य कहा जाता हैं । प्रश्न : यदि वर्तनादि पर्याय को द्रव्य कहो, तो अनवस्था दूषण आये, इसलिए काल को भिन्न द्रव्य न मानते हुए, वर्तनादि रूप काल जीवाजीव द्रव्यो का पर्याय ही माने और यदि ऐसा नहीं मानेंगे तो आकाश की तरह काल को सर्वव्यापी मानना पडेगा, क्योंकि निश्चयकाल तो सर्व आकाशद्रव्य में भी हैं । उत्तर : ऐसा कहना वह प्रमाण वचन नहीं है, क्योंकि, सिद्धान्त में अस्तिकाय पाँच ही कहे हैं और छट्ठा कालद्रव्य भिन्न कहा हैं । बहोत प्रदेश हो तो अस्तिकाय कहा जाता है और काल तो बहोत प्रदेशवाला नहीं है, परन्तु वर्तमान से एक ही समय रूप है । उपरांत भूतकाल के समय व्यतीत होने से विद्यमान नहीं हैं । इसलिए द्रव्यो के वर्तनादि पर्याय को उपचार से कालद्रव्य कहे । प्रश्न : जो काल वर्तमान एक समयरूप हैं तो काल विनष्टधर्मी कहा जाता हैं (अर्थात् जिसका धर्म नाश होता रहता है ऐसा कहा जाता है) परन्तु काल विनष्टधर्मी नहीं हैं और इसलिए ही व्यतीत हुए और भविष्य के समयो को भी एकठा गिनकर समय, आवलि, मुहूर्त, वर्ष आदि प्ररूपणा हो सकती हैं । इसलिए काल बहु प्रदेशी है और बहु प्रदेशी होने से अस्तिकाय भी कहा जाता है और अस्तिकाय कहा जाये तो काल को पृथक् द्रव्य भी अनुपचार से कहा जाता है, उसमें कुछ विरुद्ध नही हैं। उत्तर : यह सत्य है । परन्तु ये तो बादर नय की अपेक्षा से काल स्थिर (अविनष्ट धर्मी) माना जाये और इस प्रकार पदार्थ भी त्रिकालवर्ती अंगीकार किया जाता हैं, तथा आवलिका, मुहूर्त, वर्ष इत्यादि प्ररूपणा होती हैं, परन्तु वे सर्व व्यवहारनय के आधार से हैं, वास्तविक नही हैं । वास्तविक रुप से सोचने से तो निश्चय नय से काल अप्रदेशी हैं, इसलिए काल अस्तिकाय नहीं हैं और इसलिए वास्तविक रूप से द्रव्य नहीं है, परन्तु गुणाणमासओ दव्वं - गुणो का जिस में Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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