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________________ षड्दर्शन समुच्चय भाग - २, परिशिष्ट- १, जैनदर्शन का विशेषार्थ ४०१ / १०२४ से उत्पन्न हुए जाने । ये वर्ण परमाणु आदि प्रत्येक पुद्गल मात्र में ही होता हैं, इसलिए वर्ण यह पुद्गल का लक्षण हैं । परमाणु में १ वर्ण होता है और द्विप्रदेशी इत्यादि स्कंधो में २ से ५ वर्ण यथासंभव होते हैं । गन्ध-२ : सुरभिगन्ध और दुरभिगंध प्रसिद्ध है और वह पुद्गल द्रव्य में ही होती । उपरांत १ परमाणु में १ गंध और प्रदेशी आदि स्कंधो में दो गंध भी यथासंभव होती है । रस-५ : तिक्त (तीखा रस), कटु (कडुआ), कषाय (तूरा) आम्ल (खट्टा) और मधुर (मीठा), ये पाँच प्रकार के है । यहाँ छठ्ठा नमकीन (खारा) रस लोक में प्रसिद्ध है, परन्तु वह मधुर रस में अन्तर्गत जानना । ये रस प्रत्येक पुद्गल मात्र में होते है, इसलिए पुद्गल का लक्षण है । उपरांत १ परमाणु में १ रस और द्विप्रदेशी आदि स्कंधो में २ से ५ रस यथायोग्य होते हैं । I स्पर्श-८ : शीत, उष्ण, स्निग्ध, रुक्ष, लघु, गुरु, मृदु और कर्कश ये आठ स्पर्श है । और वह प्रत्येक पुद्गल द्रव्य मात्र में होते है, इसलिए पुद्गल का लक्षण है । उपरांत एक परमाणु में शीत और स्निग्ध अथवा शीत- रुक्ष अथवा उष्ण-स्निग्ध, अथवा उष्ण और रूक्ष ऐसे चार प्रकार में से कोई भी एक प्रकार के दो स्पर्श होते हैं, सूक्ष्म परिणामी स्कंधो में शीत-उष्णस्निग्ध - रूक्ष ये चार स्पर्श होते है और बादर स्कंधो में आठों स्पर्श होते हैं । - पुद्गल के स्वाभाविक और वैभाविक परिणाम : यहाँ शब्द - अंधकार - उद्योत प्रभा छाया आतप ये बादर परिणामवाले होने से उपरांत बादर पुद्गल समूहरूप होने से उपरांत बादर परिणामी पुद्गल स्कंध में से उत्पन्न हुए होने से, और स्कंध उस पुद्गल का विकार - विभाव होने से, वे अन्धकारादि लक्षण औपाधिक ( वैभाविक) लक्षण जाने, क्योंकि ये छ: लक्षण परमाणु में तथा सूक्ष्म स्कंधों में नहीं है, और वर्ण आदि ४ लक्षण तो परमाणु में तथा सूक्ष्म स्कंधों में भी होते है, इसलिए ये चार स्वाभाविक परिणाम जाने । उसमें भी लघु और गुरु तथा मृदु और कर्कश ये चार स्पर्श स्कंध में ही होने से औपाधिक- वैभाविक परिणाम हैं । कालका स्वरूप : समय, आवलि, मुहूर्त्त, दिवस, पक्ष, मास, वर्ष, पल्योपम, सागरोपम, उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी काल कहा है । (16) अति सूक्ष्म काल, कि जिसके केवलि भगवंत की ज्ञानशक्ति द्वारा भी दो भाग सोचे नहीं जा सकते ऐसा निर्विभाज्य भाग रुप काल वह समय कहा जाता हैं । जैसे पुद्गल द्रव्य का सूक्ष्म विभाग परमाणु हैं, वैसे काल का अति सूक्ष्म विभाग समय हैं । आँख की एक झप की में भी असंख्य समय व्यतीत हो जाता हैं । अति जीर्ण वस्त्र त्वरा से फाडने से एक तंतु से दूसरे तंतु तक जो काल लगता हैं, (अथवा एक ही तंतु कटने से जो काल लगता हैं) वह भी असंख्य समय प्रमाण हैं । अथवा कमल के अति कोमल १०० पत्र को एक के उपर एक रखकर अति बलवान् मनुष्य भाले की तिक्ष्ण नोंक से को बींधे, तो प्रत्येक पत्र बींधने में और उपर के प्रत्येक पत्र से नीचे के पत्र में भाले की नोंक पहुँचने में प्रत्येक सम असंख्य असंख्य समय काल लगता हैं । जिससे १०० कमल पत्र बींधने में ९९ बार असंख्य असंख्य समय व्यतीत होता हैं । ऐसे अति सूक्ष्म काल का नाम एक समय है, ऐसे असंख्य समयो की १ आवलिका होती हैं। ऐसी संख्याती (अर्थात् १६७७७२१६) से कुछ अधिक आवलिओं का १ मुहूर्त, मुहूर्त अर्थात् घडी । ३० मुहूर्त का १ दिवस, १५ दिवस का १ पक्ष । दो पक्ष का १ मास । १२ मास का एक वर्ष, असंख्यात वर्ष का १ पल्योपम, २० कोडाकोडि पल्योपम का १ सागरोपम, ऐसे १० कोडाकोडि(17) सागरोपम की १ उत्सर्पिणी और उतने ही काल की १ अवसर्पिणी, १ उत्सर्पिणी 16. समयावली मुहूत्ता, दीहा पक्खा य मास वरिसा य । भणिओ पलिया सागर, उस्सप्पिणिसप्पिणी कालो ।। ३२ ।। ( नव.प्र.) 17. क्रोड (करोड) को क्रोड से गुनने से कोडाकोडि होता हैं, ऐसा सर्वत्र जानना । जिससे यहाँ १० कोडाकोडी अर्थात् १०,०००००००००००००० Jain Education International For Personal & Private Use Only - www.jainelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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