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________________ षड्दर्शन समुच्चय भाग-२, परिशिष्ट-१, जैनदर्शन का विशेषार्थ ३९५/१०१८ को अपर्याप्तत्व प्राप्त होता है । इस प्रकार जीव के पर्याप्त और अपर्याप्त ऐसे दो मुख्य भेद हैं । पुनः इन दो भेद के अवान्तर भेद भी हैं, वे सर्व भेद अलग करने से चार भेद होते हैं, वह इस प्रकार है - १. लब्धि अपर्याप्त :- जो जीव स्वयोग्य(7) पर्याप्तियाँ पूर्ण न करे और मर जाये तो लब्धि अपर्याप्त कहा जाता हैं। पूर्व भव में बंधे हुए अपर्याप्त नामकर्म के उदय से जीव लब्धि अपर्याप्त होता है । २. लब्धि पर्याप्त : जो जीव (स्वमरण के पूर्व) स्वयोग्य सर्व पर्याप्तियाँ पूर्ण करता ही है, वह जीव लब्धि पर्याप्त कहा जाता है । पूर्व भव में बंधे हुए पर्याप्त नामकर्म के उदय से जीव यह भव में स्वयोग्य सर्व पर्याप्तियाँ पूर्ण कर सकता है । ३. करण अपर्याप्त : उत्पत्ति स्थान पे समकाले स्वयोग्य सर्वपर्याप्तियाँ की रचना का प्रारंभ हुआ है, जब तक वे समाप्त न हो, तब तक जीव करण अपर्याप्त कहा जाता है । ४. करण पर्याप्त : उत्पत्ति स्थान पे समकाले स्वयोग्य सर्व पर्याप्तिओं की रचना का जो प्रारंभ हुआ है, वह रचना समाप्त होने के बाद जीव करण पर्याप्त कहा जाता है । (पूर्व गाथा में) कहे जानेवाले जीव के (आयुष्य के सिवा) द्रव्य प्राण उत्पन्न होते हैं, इसलिए पर्याप्ति कारणरूप है और प्राण कार्यरूप हैं । कौन सी पर्याप्ति किस प्राण का कारण है, वह प्राण के वर्णन में आगे कहा जायेगा । किस जीव को कितनी पर्याप्ति ? :- एकेन्द्रिय जीव को प्रथम चार पर्याप्ति (अर्थात् आहार-शरीर-इन्द्रिय और उच्छ्वास); द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय तथा असंज्ञि पंचेन्द्रिय जीव को प्रथम पाँच पर्याप्ति और संज्ञि पंचेन्द्रिय जीव को छ: पर्याप्तियाँ होती हैं । ___ संसारी जीव को जीने की जीवनक्रियायें :- पाँच इन्द्रियाँ, तीन बल (अर्थात् योग), श्वासोच्छ्वास और आयुष्य ये दस प्राण हैं । (उसमें से) एकेन्द्रिय को, द्वीन्द्रिय को, त्रीन्द्रिय को, चतुरिन्द्रिय को, असंज्ञि पंचेन्द्रिय को और संज्ञिपंचेन्द्रिय को क्रमशः चार, छ:, सात, आठ, नव और दस (प्राण) होते हैं ।(8) १० प्राण :- प्राणिति जीवति अनेनेति प्राण:- जिसके द्वारा जीये, उसे प्राण कहा जाता है । अर्थात् यह जीव है, अथवा यह जीवित हैं, ऐसी प्रतीति जो बाह्य लक्षणो से हो उस बाह्य लक्षणो का नाम यहाँ प्राण (अर्थात् द्रव्य प्राण) कहा जाता है। ये १० प्राण जीव को ही होते है, और जीव द्रव्य से अतिरिक्त दूसरे द्रव्य में प्राण नहीं होते हैं, इसलिए ये १० द्रव्य प्राण वह जीव का लक्षण (बाह्य लक्षण) हैं । प्राण ये संसारी जीव का जीवन है । जीवन के बिना-प्राणो के बिना कोई भी संसारी जीव जी नहीं सकता । दस प्राण रूप जीवन क्रिया चलना यही संसारी जीव का जीवन हैं और पर्याप्तियाँ जीवन क्रिया चलाने की मददकार शक्ति प्रकट होने के साधन हैं । ५. इन्द्रियप्राण :- स्पर्शेन्द्रिय, रसनेन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय, चक्षुरिन्द्रिय और श्रोतेन्द्रिय ये ५ इन्द्रिय है, इन्द्र अर्थात् आत्मा, उसका जो लिङ्ग-चिह्न वह इन्द्रिय कहा जाता हैं । दिखाई देती त्वचा-चमडी वह स्पर्शेन्द्रिय नहीं है, परन्तु अंगुल के असंख्यातवें भाग जितनी पतली, शरीर के बाह्य तथा अभ्यन्तर भाग जितने (अथवा शरीर प्रमाण अन्दर से तथा बाहर से) विस्तारवाली, शरीर के बाह्य तथा अभ्यन्तर भाग में आच्छादित और चक्षु से अदृष्ट ऐसी शरीर के आकारवाली (अभ्यतर) निर्वृत्तिरूप एक ही भेदवाली स्पर्शेन्द्रिय हैं । तथा अंगुल के असंख्यातवें भाग जितनी पतली, अंगुल पृथक्त्व विस्तारवाली, चक्षु से अदृष्ट ऐसी, दिखाई देती (दृश्यमान) जिह्वा में आच्छादित और कुश (घास) उठाने की खुरपी जैसे 7. "स्वयोग्य" अर्थात् चालु गाथा में जो एकेन्द्रिय की ४, विकलेन्द्रिय की ५, असंज्ञि पंचेन्द्रिय की ५, तथा संज्ञि पंचेन्द्रिय की ६ पर्याप्तियाँ कही हैं, उस प्रकार एकेन्द्रिय को स्वयोग्य पर्याप्तियाँ ४, इत्यादि प्रकार से जानना । 8. पणिंदिअत्तिबलूसा-साउ दसपाण, चउ छ सग अट्ठ । इग-दु-ति-चउरिंदीणं, असन्नि-सन्नीण नव दस य ।।७।। (नव.प्र.) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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