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षड्दर्शन समुच्चय भाग-२, परिशिष्ट-१, जैनदर्शन का विशेषार्थ
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स्पष्ट कहा हुआ हैं, इसलिए सूक्ष्म अपर्याप्त निगोद को प्रथम समय में अति अल्प चारित्र गुण होता हैं और वह अविरति चारित्र होता है । जैसे चारित्र वैसे तप गुण भी अल्प मात्रावाला होता है, तथा आकार ग्रहण आदि क्रियाओं में प्रवर्तित अति अल्पवीर्य भी होता है और वह असंख्यात भेद से हीनाधिक तरतमतावाला होता है । उस कारण से ही कर्मप्रकृति इत्यादि ग्रंथों में " सूक्ष्म अपर्याप्त निगोद जीव को भी वीर्यान्तराय के क्षयोपशम से अपर्याप्त अवस्था तक निरंतर असंख्य गुण वृद्धिवाले योगस्थान प्रति समय प्राप्त है" ऐसा कहा है । उपरांत जो ज्ञान दर्शन हैं, तो उसके व्यापाररूप उपयोग लक्षण अवश्य होता है । इस प्रकार जैसे सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्त में ६ (छः) लक्षण कहे, उस तरह से चौदह जीव भेद में यथासंभव छः लक्षण स्वयं सोच ले ।
उपरांत सत्ता मात्र से तो सूक्ष्म अपर्याप्त निगोद जीव को भी अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्त चारित्र, अनन्त वीर्य, अनन्त उपयोग है, परन्तु कर्म के आवरण से वे ज्ञानादि गुण अल्प अथवा अधिक माने जाते हैं और कर्मावरण रहित जीव को संपूर्ण स्पष्ट होते हैं । इसलिए ज्ञानादि गुण सिद्ध परमात्मा में जैसे है वैसे ही सूक्ष्म निगोद जीव में भी होते है, परन्तु निगोद को सत्तागत हैं और सिद्ध को संपूर्ण प्रकट हुए हैं, वही अन्तर हैं ।
संसारी जीवो की छः पर्याप्तिर्यां(6) : पर्याप्ति-अर्थात् संसारी जीव को शरीरधारी के रूप में जीने की जीवन शक्ति वह पर्याप्ति । यद्यपि कोई भी जाति का शरीर धारण करके जीने की आत्मा में शक्ति हैं । परन्तु वह शक्ति पुद्गल-परमाणुओं की मदद के बिना प्रकट नहीं होती है । अर्थात् यदि पुद्गल - परमाणुओं की मदद न हो, तो आत्मा शरीर में जीने की शक्ति प्रकट नहीं होती है अर्थात् वही शरीरधारी के रुप में जी नहीं सकेगा । इसलिए पुद्गल परमाणुओं के समूह के निमित्त से आत्मा में से प्रकट हुई और शरीरधारी रुप से जीने के लिए उपयोगी पुद्गलो को परिणमन करने का काम करनेवाली आत्मा की अमुक प्रकार की (शरीर धारण करके जीने की ) जीवन शक्ति वह पर्याप्ति ।
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आहार के बिना शरीर बंधता नहीं है, शरीर धारण किये बिना जीव किसी भी तरह से संसारी रूप से जी नहीं सकेगा, शरीर धारण करने पर भी इन्द्रियों के बिना जी नहीं सकेगा । इसलिए इन्द्रियाँ बाँधनी पडेगी, श्वासोच्छवास के बिना शरीरधारी जी नहीं सकता । तथा ज्यादा शक्तिवाले जीव को बोलने की और सोचने की शक्ति की आवश्यकता पडती है, कि जिसके कारण वह बोल सकता हैं और सोच सकता हैं । इसलिए सभी संसारी जीवों की अपेक्षा से आहार, शरीर, इन्द्रिय, श्वासोश्वास, भाषा और मन ये छ: पर्याप्तियाँ होती हैं । ये छः से ज्यादा जीवन शक्ति संभवित ही नहीं हैं।
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अपने योग्य पर्याप्तियाँ पूर्ण करे उस जीव का नाम पर्याप्त जीव और अपने योग्य पर्याप्तियाँ पूर्ण किये बिना मरे, वह अपर्याप्त जीव । अपर्याप्तत्व देनेवाला कर्म वह अपर्याप्त नामकर्म और पर्याप्तत्व देनेवाला कर्म वह पर्याप्त नामकर्म ।
पर्याप्ति की उपर बताये अनुसार व्याख्या समजने के बाद उसके कार्य-कारण, बाह्य- अभ्यन्तर निमित्त, द्रव्य, भाव इत्यादि अपेक्षा से अनेक प्रकार की व्याख्यायें शास्त्र में दी गई हैं । अब छः पर्याप्तियों का स्वरूप देखेंगे ।
१. आहार पर्याप्ति :- उत्पत्ति स्थान में रहे हुए आहार को जीव जो शक्ति द्वारा ग्रहण करे और ग्रहण करके खल रसको योग्य बनाये, वह आहार पर्याप्ति । (यहाँ खल अर्थात् असार पुद्गल-मल-मूत्रादि और शरीरादि रचना में उपयोगी हो ऐसे पुद्गल वह रस 1) यह पर्याप्ति प्रथम समय में ही समाप्त होती हैं ।
6. आहारसरीरिंदिय-पज्जत्ती आणपाणभासमणे । चउ पंच पंचछप्पिय, इगविगलाऽसन्निसन्नीणं ।। ६ ।। ( नव. प्र. )
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