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षड्दर्शन समुच्चय भाग - २, श्लोक - ८३, लोकायतमत
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कश्चन जीवो विद्यते । भूतचतुष्कसंयोगश्च विद्युदुद्योत इव क्षणतो दृष्टो नष्टः तस्मात्परलोकानपेक्षया यथेच्छं पिब खाद चेत्यर्थः । । ८२ ।।
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व्याख्या का भावानुवाद :
सुनयना ! पेय-अपेय की (व्यवस्था का विचार किये बिना उसकी व्यवस्था का लोप करके मदिरादि का पान करो। केवल पीने का ही नहि, भक्ष्याभक्ष्य के विचार से निरपेक्षरुप से मांसादि को खाओ, उपलक्षण से गम्यागम्य स्थान के विभाग करे बिना भोगो को भुगतने द्वारा स्वयौवन को सफल करो । यह वचन भी वह पति अपनी पत्नी को कहता है वह जानना । हे सुंदरी ! यौवन बीत जाने के बाद कुछ नहि मिलेगा। यहाँ “चारुलोचना" और "वरगात्रि" दो संबोधन समान अर्थवाले होने पर भी स्त्री के प्रति आदर - अनुराग
अतिरेक से प्रयुक्त है । (पुरुष लोग ऐसा बोलते होते है ।) इसलिए उसमें पुनरुक्तिदोष नहीं है ।
जिससे कहा है कि... “अनुवाद, आदर, वीप्सा, भृशार्थ = बहुलता, विनियोग, हेतु, असूया, इषत्, संभ्रम, विस्मय, गणना तथा स्मरण: इस अर्थो में शब्द का दो बार प्रयोग करने में पुनरुक्त दोष आता नहीं है।
आस्तिक स्त्री : इच्छानुसार स्वच्छंदतापूर्वक खाने में, पीने में और भोग भुगतने में तो पाप बंधेगा । उसके योग से परलोक में बहोत दुःखो की परंपरा प्राप्त होगी और सुकृत का संचय करेंगे तो भवांतर में भोगसुख, यौवन आदि सुलभ बनेगा ।
नास्तिक पति : दूसरो के कहने मात्र से नरकादि में प्राप्त होते दुःखो से भयाकुल हे भोली ! उस लोक का बीता हुआ यौवन तथा सुख परलोक में आनेवाला नहीं है। जो गया वह गया । इसलिए परलोक के मिथ्यासुख की लिप्सा से तपचारित्र आदि कष्टकारि क्रियाओ के द्वारा इस लोक के सुख की उपेक्षा करना निरर्थक है ।
आस्तिक स्त्री : पूर्वकृत शुभाशुभकर्म की परतंत्रता से जीव के द्वारा इस जन्म में इस शरीर में रहकर उसके फल भुगतते है । उस तरह से इस शरीर में रहकर जीव के द्वारा कीये हुए कर्म परलोक में अवश्य भुगतने पडेगे । इसलिए कर्म के फल तो किसी को भी भुगते बिना चले ऐसा नहीं है ।
नास्तिक पति : यह शरीर पृथ्वी आदि चार भूतो का क्लेवर ही है । परन्तु शरीर में ये चार के संयोग से अतिरिक्त परलोकगामी शुभाशुभकर्मों के विपाक को भुगतनेवाला कोई जीव नहीं है । और चार भूतो का संयोग बिजली के उद्योत की तरह क्षणभर में देखते-देखते नाश हो जाता है। परलोक जैसी कोई चीज नहीं है । इसलिए परलोक की चिंता छोडकर, उसके निरपेक्षरुप से इच्छानुसार (हे सुन्दरी !) पीओ और खाओ। ॥८२॥ अथ प्रमेयं प्रमाणं चाह अब उसके प्रमेय और प्रमाण का निरुपण करते है ।
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(मू. श्लो.) किंच-पृथ्वी जलं तथा तेजो वायुर्भूतचतुष्टयम् ।
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आधारो भूमिरेतेषां मानं त्वक्षजमेव हि ।। ८३ ।।
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