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________________ ३७४/९९७ षड्दर्शन समुञ्चय भाग - २, श्लोक - ७८, मीमांसक दर्शन __ श्लोकार्थ : इस अनुसार से यह जैमिनि (मीमांसा) मत का संक्षेप है। उसके साथ आस्तिकदर्शनो का संक्षिप्तविवरण पूर्ण होता है। ।।७७|| व्याख्या-अपिशब्दान्न केवलमपरदर्शनानां सङ्क्षपो निवेदितो जैमिनीयमतस्याप्ययं सङ्क्षपो निवेदितः । वक्तव्यस्य बाहुल्यादल्पीयस्यस्मिन् सूत्रे समस्तस्य वक्तुमशक्यत्वात्संक्षेप एव प्रोक्तः । अथ प्रागुक्तमतानां सूत्रकृनिगमनमाह “एवं" इत्यादि । एवंइत्थमास्तिकवादानां-जीवपरलोकपुण्यपापाद्यस्तित्ववादिनां बौद्धनैयायिकसाङ्ख्यजैनवैशेषिकजैमिनीयानां संक्षेपेण कीर्तनं-वक्तव्याभिधानं संक्षेपकीर्तनं कृतम् ।।७७।। व्याख्या का भावानुवाद : "अपि" शब्द से सूचित होता है कि केवल अन्य दर्शनो का संक्षिप्त निवेदन नही किया गया। जैमिनि मत का भी संक्षिप्त निवेदन किया गया। कहना तो बहोत था परंतु ग्रंथ की मर्यादा होने से एक ही सूत्र में ज्यादा कहना असंभव होने से संक्षिप्तकथन ही करना उचित है। पहले कहे हुए मतो का उपसंहार करते हुए मूलसूत्रकार कहते है कि... इस अनुसार से जीवादि के अस्तित्व को स्वीकार करने वाले बौद्धादि आस्तिकवादो का संक्षेप पूर्ण होता है। अर्थात् जीव-अजीव-पुण्य-पापादि के अस्तित्व को स्वीकार करने वाले बौद्ध, नैयायिक, और सांख्य, जैन, वैशेषिक, जैमिनि इन आस्तिकदर्शनो का संक्षेप से कथन किया । ॥७७|| अत्रैव विशेषमाह - अब ग्रंथकारश्री विशेष कुछ कहते है - (मू. श्लो.) नैयायिकमतादन्ये भेदं वैशेषिकैः सह । न मन्यन्ते मते तेषां पञ्चैवास्तिकवादिनः ।।७८ ।। श्लोकार्थ : कुछ आचार्य न्यायदर्शन से वैशेषिकदर्शन को भिन्न मानते नहीं है। इसलिए उनके मतानुसार आस्तिकदर्शन पांच ही है। ।।७८।। व्याख्या-अन्ये-केचनाचार्या नैयायिकमताद्वेशेषिकैः सह भेदं-पार्थक्यं न मन्यन्ते । एकदेवतत्त्वेन तत्त्वानां मिथोऽन्तर्भावेनऽल्पीयस एव भेदस्य भावाञ्च नैयायिकवैशेषिकाणां मिथो मतैक्यमेवेच्छन्तीत्यर्थः । तेषाम-आचार्याणां मते आस्तिकवादिनः पञ्चैव न पुनः षट् ।।७८।। व्याख्या का भावानुवाद : कुछ आचार्य नैयायिक मत से वैशेषिकमत को पृथक् मानते नहीं है। क्योंकि उन दोनो में देव समान है। तत्त्वो में जो कुछ अंश से भेद है, उन तत्त्वो का परस्पर अन्तर्भाव हो जाता होने से अत्यंत अल्प ही भेद Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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