SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 399
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३७२/९९५ षड्दर्शन समुञ्चय भाग - २. श्लोक - ७६, मीमांसक दर्शन में घोडे आदि का अभाव अन्योन्याभाव है। अर्थात् एक वस्तु में उससे भिन्न वस्तु के तादात्म्य का अभाव को अन्योन्याभाव कहा जाता है। "घटे न पटः" उसका आकार है। खरगोस के मस्तक के उपर के अवयवो में वृद्धि तथा कठिनता न होना प्रत्युत निम्न-समतल में रहना वह सिंग का अत्यंताभाव है। मस्तक के अवयवो में कठिन बन के वृद्धि पाना-आगे के हिस्से में नीकलना वही शृंग कहा जाता है। जब मस्तक के अवयव समतल में रहेंगे कठिनता तथा वृद्धि प्राप्त नहि करेगें तब उस मस्तक की समतलता ही "शशश्रृंग" का अत्यंताभाव कही जाती है। यदि उसका व्यवस्थापक अभावप्रमाण न हो तो वस्तु की नियत व्यवस्था ही नहि रहेगी । अभाव का लोप करने से तो सर्वपदार्थ सर्वरुप हो जायेंगे । उसमें भिन्नता लानेवाले कोई नियामक ही नहीं रहेगा। (उसके योग से जैस घट जो पट से भिन्न है, उन दोनो को भिन्न करनेवाला अन्योन्याभावरुप अभावप्रमाण ही न हो तो घट ही पटरुप बन जाने के कारण घटार्थी की पट में भी प्रवृत्ति हो जाने की आपत्ति आयेगी। उसके योग से) समस्त प्रतिनियतव्यवहार का लोप होगा। सारांश में, सर्वपदार्थ में भिन्नता लानेवाला नियामक अभावप्रमाण नहि मानोंगे तो दूध में दही, दहीं में दूध, घट ही पट, खरगोस के मस्तक के उपर सिंग, पृथ्वी में चैतन्य, आत्मा में मूर्तत्व, जल में गंध, अग्नि में रस, वायु में रुप-रस-गंध, आकाश में स्पर्श आदि का प्रसंग आ जायेगा। उसके योग से समस्त लोकव्यवस्था नष्ट हो जायेगी । सारांश में, अभाव की सत्ता मानने में नहि आयेगी, तो जगत की प्रतिनियतव्यवस्था तूट जायेगी।) अथ निरंशसदेकरूपत्वाद्वस्तुनोऽध्यक्षेण सर्वात्मना ग्रहणे कोऽपरो सदंशो यत्राभावः प्रमाणं भवेदिति चेत, न, स्वपररूपाभ्यां सदसदात्मकत्वाद्वस्तुनःH-6, अन्यथा वस्तुत्वायोगात् । न च सदंशादसदंशस्याऽभिन्नत्वात्तद्ग्रहणे तस्यापि ग्रहः इति वाच्यं, सदसदंशयोधर्म्यभेदेऽपि भेदाभ्युपगमात्"-7 । तदेवं प्रत्यक्षाद्यगृहीतप्रमेयाभावग्राहकत्वात्प्रमाणाभावः प्रमाणान्तरमिति । अथो(थानु)क्तमपि किंचिद्व्यक्तये लिख्यतेअनधिगतार्थाधिगन्तृ प्रमाणं । H-पूर्वं पूर्व प्रमाणमुत्तरं तु फलं । सामान्यविशेषात्मकं वस्तु प्रमाणगोचरम् । नित्यपरोक्षं ज्ञानं हि भाट्टप्रभाकरमतयोरर्थप्राकट्याख्यसंवेदनाख्यफलानुमेयम् । वेदोऽपौरुषेयः । वेदोक्ता हिंसा धर्माय । शब्दो नित्यः । सर्वज्ञो नास्ति अविद्याऽपरनाममायावशात्प्रतिभासमानः सर्वः प्रपञ्चोऽपारमार्थिकः । परब्रह्मैव परमार्थसत् ।।७६ ।। व्याख्या का भावानुवाद : शंका : निरंशवस्तु एक सद्रूप ही है। तादृशवस्तु प्रत्यक्षादि प्रमाणो से सर्वथा ग्रहण हो जाती है। तब उसमें सद्-अंश के अभावरुप कौन सा दूसरा असंदश बाकी रहता है कि, उसको ग्रहण करनेवाले अभावप्रमाण को मानना पडे ? अर्थात् वस्तुमात्र सद्प है। उसमें एक ही सदंश है, अन्य असदंश है ही (H-6-7-8-9) - तु० पा० प्र० प० । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy