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________________ षड्दर्शन समुच्चय भाग - २, श्लोक - ७६, मीमांसक दर्शन मूर्त्तिरात्मनि । । ७ । । अप्सु गन्धो रसश्चाग्नौ वायौ रूपेण तौ सह । व्योम्नि संस्पर्शिता ते च न चेदस्य प्रमाणता ।।८।।” [मी. श्लोक ० अभाव० श्लो - २ - ९] इति ।। ३७० / ९९३ व्याख्या का भावानुवाद : अब जो लोग अभावप्रमाण को एक ही प्रकार से मानते है, उनके मत से प्रस्तुत श्लोक की व्याख्या की जाती है – । “जब घटादि वस्तु के सदंश में प्रत्यक्षादि पांच प्रमाणो का व्यापार होता नहीं है, तब उस वस्तु के शेष असदंश में - अभावांश में अभावप्रमाण का व्यापार होता है । वस्तु के दो रूप होते है । एक सदात्मक और दूसरा असदात्मक । वस्तु का सदात्मक अंश प्रत्यक्षादि पांच प्रमाण का विषय बनता है और वस्तु का शेष असदंश कि जो पांच प्रमाणो का विषय बनता नहीं है, वह अभावप्रमाणका विषय बनता है । अर्थात् असदंश में अभाव की प्रमाणता है। किसी स्थान पे “वस्तुसत्तावबोधार्थं " के स्थान पे "वस्त्वसत्तावबोधार्थं " पाठ भी देखने को मिलता है । वहाँ वस्तु की जो असत्ता असदंश है, उसको जानने के लिए अभावप्रमाण का व्यापार होता है। इसलिए तीन प्रकार के या एक प्रकार के अभाव प्रमाण से भूतलादि प्रदेश में घटाभाव को जाना जा सकता है। प्रत्यक्ष प्रमाण से अभाव मालूम होता नहीं है। क्योंकि अभाव को प्रत्यक्षप्रमाण का विषय बनने में विरोध है। अर्थात् प्रत्यक्षप्रमाण के द्वारा अभाव विषय बन सकता नहीं है । इन्द्रियो का संयोग वस्तु के भाव अंश में ही होता है । अभाव अंश में नहि । शंका : घटकी अनुपलब्धिरुपलिंग से भूतलादि प्रदेशरुपी धर्मी में घटाभाव को साध्य मानकर " इस प्रदेश में घट नहीं है, क्योंकि अनुपलब्धि है । इस अनुमान से अभाव को ग्रहण किया जा सकता है। तो फिर अभावांश को ग्रहण करने के लिए स्वतंत्र अभावप्रमाण मानने की क्या आवश्यकता है ? समाधान : ऐसा कहना उचित नहीं है । क्योकि ( उपरोक्त अनुमान के) साध्य और साधन का अविनाभाव पहले से ग्रहण किया हुआ दिखाई नहीं देता है तथा उपरोक्त अनुमान में साध्य-साधन में कोई कार्य-कारणभाव आदि संबंध भी नहीं है । इसलिए अनुमान से अभाव ग्राह्य नहीं बन सकता है। इसलिए वस्तु के अभावांश को ग्रहण करनेवाला स्वतंत्र अभावप्रमाण माना जाता है। तथा अभावप्रमाण का विषय अभाव वस्तुरुप है तथा वह चार प्रकार का है। (१) प्रागभाव, (२) प्रध्वंसाभाव, (३) अन्योन्याभाव, और (४) अत्यंताभाव । यदि अभावप्रमाण का विषय अभाव वस्तुरुप और प्रागभावादि प्रकारवाला न हो तो लोकप्रतीत सभी कारणादि व्यवहारो का लोप होने का प्रसंग आयेगा । इसलिए ही कहा है कि... "यदि अभाव प्रागभावादि चार प्रकार का न हो तो कारण कार्य आदि के विभाग से जो लोकव्यवहार Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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