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षड्दर्शन समुञ्चय भाग - २, श्लोक - ६८, मीमांसक दर्शन
जैसे कि, गली में भटकता हुआ कोई मूर्ख मनुष्य।
शंका : हम भी रास्ते में भटकते ईन्सान को सर्वज्ञ कहते नहीं है। परंतु हम उस महानव्यक्ति को सर्वज्ञ मानते है कि जिसकी सुर-असुर दास बनके सेवा करते है। तथा जिनके पास त्रैलोक्य के साम्राज्य की सूचक, छत्र, चामर, सिंहासन आदि विभूतियां सर्वज्ञता के बिना हो सकती नहीं है। इसलिए उस अन्यथा अनुपपत्ति = अविनाभावि विभूतियों के आधार से आप लोग सर्वज्ञ को क्यों मानते नहीं है ?
समाधान : आपकी बात योग्य नहीं है। क्योंकि मायावी पुरुषो के द्वारा भी कीर्ति, पूजा आदि की लालसा से इन्द्रजाल के वश से तादृशविभूतियां प्रकट की जाती है। तो क्या बाह्य विभूतियां मात्र से सर्वज्ञ की सत्ता किस तरह से मान सकते है। आपके ही आचार्य श्री समन्तभट्टने कहा है कि... "देवो का आना, नभोयान, छत्र-चामरादि विभूतियां तो मायाविओ में भी देखने को मिलती है। इसलिए उस विभूतियां मात्र से आप हमारे लिए महान-पूज्य नहीं है।"
शंका : जैसे अनादिकाल का मलिन भी सुवर्ण को क्षारमृत् पुटपाकादि प्रक्रिया के द्वारा (-तेजाब आदि से मिट्टी के पात्र में पकाने के द्वारा) शुद्ध करने से सुवर्ण निर्मलता को प्राप्त करता है, उस अनुसार से आत्मा भी निरंतर ज्ञानाभ्यास तथा योग आदि प्रक्रियाओ से कर्ममल रहित होने से सर्वज्ञ क्यों न बन सकें? अर्थात् सतत ज्ञानाभ्यास आदि प्रक्रियाओ से ज्ञानावरणीयकर्म नाश पाने से क्या कोई व्यक्ति सर्वज्ञ बन सकता नहीं है ? सर्वज्ञता के लिए मुख्यतया ज्ञानावरणीय कर्मो का नाश ही आवश्यक है।
समाधान : आपकी वह बात भी उचित नहीं है। क्योंकि अभ्यास से प्राप्त होने वाली शुद्धि तरतमतावाली होती है। परन्तु अभ्यास से परमप्रकर्ष प्राप्त होना असंभवित है। (अर्थात् ज्ञानाभ्यास से पहले जो ज्ञान था उससे थोडा बढेगा, पुनः ज्ञानाभ्यास से उससे भी थोडा बढेगा । परन्तु बढता बढता लोकालोकविषयक बन जाना संभवित नहीं है। इसलिए अभ्यास से ज्यादा-कम प्रमाण में तबदिली होगा। परन्तु परमप्रकर्ष प्राप्त नहीं होगा। जैसे कोई मनुष्य उंचे कूदने को चाहे जितना अभ्यास करे परन्तु वह कभी भी समस्त लोक का उल्लंघन नहीं कर सकता है। केवल अभ्यास से पहले जितना उंचे कूद सकता था, उससे ज्यादा कूद सकेगा परंतु सकललोक को लांघ जाना संभवित नहीं है। कहा भी है कि... "जो मनुष्य अभ्यास करता करता दस हाथ उंचा उछल सकता है, वह सेंकडो अभ्यास करने पर भी सो योजन उंचा नहीं कूद सकता है।"
शंका : अच्छा, मनुष्यो को अभ्यास से सर्वज्ञता भले ही प्राप्त न हो, परंतु ब्रह्मा, विष्णु, महेश आदि तो देव है, उनमें तो सर्वज्ञतारुपी अतिशय हो सकता है। कुमारिलने कहा है कि.... "यदि दिव्य देह होने से ब्रह्मा, विष्णु, महेश आदि चाहे सर्वज्ञ हो परंतु सामान्य मनुष्य में सर्वज्ञता किस तरह से हो सकती है?" इससे स्पष्ट होता है कि अलौकिक दिव्य पुरुष ब्रह्मा आदि में सर्वज्ञता मानने में बाध नहीं है। इसलिए उनको ही सर्वज्ञ मान लेने चाहिए।
समाधान : आपकी वह बात भी अयोग्य है। क्योंकि राग-द्वेषमूलक शिष्यानुग्रह करनेवाले तथा
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