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________________ ३४२/९६५ उस इन्द्रियप्रत्यक्ष के भी दो प्रकार है - (१) निर्विकल्पक, और (२) सविकल्पक । वस्तु के स्वरुप का साधारणरूप से आलोचन करनेवाला ज्ञान निर्विकल्पक कहा जाता है । वह निर्विकल्पकज्ञान मात्र सामान्य को ग्रहण करता नहीं है । क्योंकि उससे भेद का भी प्रतिभास होता है । तथा वह मात्र स्वलक्षणविशेष को भी ग्रहण करता नहीं है। क्योंकि वह सामान्यकार का भी संवेदन करता है । (अर्थात् निर्विकल्पक ज्ञान मात्र सामान्य या मात्र विशेष को ही विषय करता नहीं है, उसमें सामान्य की तरह विशेषाकार का भी भान होता है। और वह किसी तरह से होता है, वह बताते है ।) दूसरी व्यक्ति को देखकर "यह उसके जैसी है" ऐसे प्रकार के अनुसंधान से स्पष्ट रुप से प्रतीत होता है कि, निर्विकल्पक में स्वलक्षणविशेष की तरह सामान्यधर्मो का भी प्रतिभास होता है । षड्दर्शन समुच्चय भाग - २, श्लोक - ६७, वैशेषिक दर्शन इस अनुसार से निर्विकल्पक में सामान्य और विशेष उभय का प्रतिभास होता होने पर भी " यह सामान्य और यह विशेष" अर्थात् "यह इससे समान है" तथा "इससे विलक्षण है" इत्याकारक सामान्य और विशेष का पृथक् पृथक् विवेचन करके प्रतिभास होता नहीं है। क्योंकि निर्विकल्पक में सामान्य और विशेष के संबंधी ऐसे अनुगतधर्मो और व्यावृत्तधर्मो का प्रतिभास होता नहीं है। (इसलिए निर्विकल्पक में “अयं घटः" इत्यादि शब्दात्मक व्यवहार होता नहीं है ।) सविकल्पक प्रत्यक्ष में सामान्य और विशेषरुप का अर्थात् " यह सामान्य है, यह विशेष है" इत्याकारक सामान्य और विशेषरुप का पृथक् पृथक् विवेचन करके प्रतिभास होता है । दूसरी वस्तुओ के साथ के अनुगतधर्म और व्यावृत्तधर्मो को जाननेवाले आत्मा को इन्द्रिय के द्वारा वैसे प्रकार की प्रतीति होती है । अर्थात् "यह उससे समान है तथा यह उससे विलक्षण है ।" इत्याकारक अनुगतधर्मो तथा व्यावृत्तधर्मो को जाननेवाले आत्मा को इन्द्रियो से सविकल्पकज्ञान उत्पन्न होता है । - योगज प्रत्यक्ष भी दो प्रकार का है। (१) युक्तयोगीओ का प्रत्यक्ष, (२) वियुक्तयोगीओ का प्रत्यक्ष । समाधि में अत्यंतलीन ऐसे योगीयो का अंत:करण (चित्त) योगजधर्म के बल से (योग से उत्पन्न होनेवाले विशिष्टधर्म से) शरीर से बाहर निकल के अतीन्द्रियपदार्थो के साथ संयुक्त होने से जो अतीन्द्रियपदार्थो का दर्शन होता है, उसे युक्तयोगीयो का प्रत्यक्ष कहा जाता है। Jain Education International I जो अत्यंत योगाभ्यासोचित धर्मातिशय से समाधि में न होने पर भी अतीन्द्रियपदार्थो को देखते है, उसे वियुक्तयोगीयो का प्रत्यक्ष कहा जाता है । उनको आत्मा मन, इन्द्रिय और पदार्थ के सन्निकर्ष से दूरदेशवर्ती अतीत और अनागतकालीन ( तथा सूक्ष्मपरमाणु आदि) अतीन्द्रियपदार्थो का जो प्रत्यक्ष होता है उसे वियुक्तयोगीयो का प्रत्यक्ष कहा जाता है। यह प्रत्यक्ष उत्कृष्टयोगी का ही जानना । योगीमात्र को उसका असंभव है। (ये वियुक्तयोगियो का समाधि में लीन हुए बिना ही योगाभ्यास के अतिशय से अतीन्द्रियपदार्थो का दर्शन होता है। उसका विस्तृतवर्णन न्यायकंदली ग्रंथ से जान लेना ।) लैङ्गिकस्य पुनः स्वरूपमिदम् । लिङ्गदर्शनाद्यदव्यभिचारित्वादिविशेषणं ज्ञानं तद्यतः For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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