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________________ षड्दर्शन समुच्चय भाग - २, श्लोक - ६५, वैशेषिक दर्शन यह अनवस्था मूलत: सामान्यपदार्थ का ही लोप कर डालती है। इसलिए उसको मूलक्षतिकारि कहा जाता I ३३६ / ९५९ (५) रुपहानि: यदि विशेष में जाति मान ले तो विशेष के स्वरुप की हानि होगी। (जिसमें जाति मानने से उस पदार्थ के स्वरुप की हानि हो जाती हो तो वह धर्म जाति नहीं बन सकता। इसलिए यदि विशेषपदार्थ में भी जाति मानोंगे, तो वह भी स्वत: व्यावृत्त नहि हो सकेगा । परंतु जाति के द्वारा व्यावृत्त होगा । उससे विशेष के “स्वत: व्यावर्तक" स्वरुप की हानि हो जायेगी। इसलिए विशेषपदार्थ में जाति नहीं मानी जाती ।) (६) असंबंध = संबंधाभाव : यदि समवाय में जाति मानोंगे तो संबंधाभाव नाम का दूषण आयेगा । (सत्ता अन्यपदार्थो में समवायसंबंध से रहती है।) तो सत्ता किस संबंध से समवाय में रहेगी ? क्योंकि दूसरे समवाय का अभाव है। समवाय तो एक ही है। ( इस तरह से द्रव्यादि तीन पदार्थो में सत्ता समवाय संबंध से रहती है। बाकी के सामान्यादि पदार्थ स्वरुपसत् है ।) इसलिए दूसरे समवाय का अभाव होने से अर्थात् समवाय एक ही होने से संबंधाभाव के कारण समवाय में जाति मानी जाती नहीं है । दूसरे किसी आचार्यने तीन प्रकार के सामान्य कहे है । (१) महासामान्य, (२) सत्तासामान्य, (३) विशेषसामान्य | सामान्य - उसमें महासामान्य छ: पदार्थो में रहता है। तथा उसमें "पदार्थ, पदार्थ" इत्याकारक पदार्थत्व बुद्धि को उत्पन्न करता है। सत्तासामान्य द्रव्य, गुण और कर्म ये तीन पदार्थो में "सत् सत्” बुद्धि उत्पन्न करता । द्रव्यत्व आदि सामान्य विशेष - सामान्य है । ( वह प्रतिनियत द्रव्य आदि में " द्रव्य, द्रव्य" आदि अनुगतबुद्धि करता है। तथा गुणादि से व्यावृत्ति करता है ।) अन्य आचार्य इस अनुसार से कहते है - सत्ता, "द्रव्य, गुण और कर्म" ये तीन पदार्थो में "सत्, सत्” बुद्धि कराती है । (इसलिए वह सत्तारुप महासामान्य है ।) द्रव्यत्वादि सामान्यरुप है । पृथ्व सामान्यविशेषरुप है । द्रव्य, गुण और कर्म से सत्ता आदि के लक्षण भिन्न होने से सत्ता आदि द्रव्यादि से भिन्न पदार्थ है। अर्थात् सत्ता आदि स्वतंत्र पदार्थ के रुप में सिद्ध होते है । 1 'अथ' इत्यानन्तर्ये । विशेषस्तु निश्चयतः- तत्त्ववृत्तित एव विनिर्दिष्टः, न पुनर्घट-पटकटादिरिव व्यवहारतो विशेषः तुशब्दोऽनन्तरोक्तसामान्यादस्यात्यन्तव्यावृत्तिबुद्धिहेतुत्वेन भृशं वैलक्षण्यं सूचयति । यत एव निश्चयतो विशेषः, तत एव 'नित्यद्रव्य-वृत्तिरन्त्यः' इति । तत्र नित्यद्रव्येषु विनाशारम्भरहितेष्वण्वाकाशकालदिगात्ममनःसु वृत्तिर्वर्तनं यस्य स नित्यद्रव्यवृत्तिः । तथा परमाणूनां जगद्विनाशारम्भकोटिभूतत्वात् मुक्तात्मानां मुक्तमनसां स संसारपर्यन्तरूपत्वादन्तत्वम्, अन्तेषु भवोऽन्त्यो विशेषो विनिर्दिष्ट :- प्रोक्तः, अन्तेषु स्थितस्य विशेषस्य स्फुटतरमालक्ष्यमाणत्वात् । वृत्तिस्तु तस्य सर्वस्मिन्नेव परमाण्वादौ नित्ये द्रव्ये A. “नित्यद्रव्यवृत्तयोऽन्त्या विशेषाः । ते खल्वत्यन्तव्यावृत्तिहेतुत्वाद्विशेषा एव ।”- प्रश० भा० पृ० ४ । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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