SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 36
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ षड्दर्शन समुञ्चय भाग-२, श्लोक-४५-४६, जैनदर्शन ९/६३२ (बाधित) भी नहीं है। __ शंका : घट के कर्ता बुद्धिमान् कुम्हार में तो असर्वज्ञत्व, शरीरत्व, असर्वगतत्व आदि धर्मो के साथ संबंध रखनेवाला कर्तृत्व है। इसलिए क्षित्यादि का कर्ता भी असर्वज्ञ, असर्वगत बन जायेगा। इस अनुसार से सर्वज्ञ, अशरीरी और सर्वगत ईश्वर से विपरीत धर्मवाले कर्ता सिद्ध होने के कारण सर्वगत कर्ता को ही साध्य रखोंगे, तो दृष्टांतभूत कुम्हार में अशरीरत्व, सर्वगतत्व और सर्वज्ञत्वधर्म नहि होने के कारण दृष्टांत साध्यविकल बन जायेगा। समाधान : आपकी बात उचित नहीं है, क्योंकि साध्य और हेतु की व्याप्ति सामान्य धर्म से ही ग्रहण की जाती होती है। यदि विशेषधर्म से व्याप्ति का ग्रहण होता है, ऐसा कहोंगे तो सभी अनुमान के उच्छेद की आपत्ति आयेगी। जैसे कि, महानसीय वह्नि के धर्म पर्वत में सिद्ध होने से अनिष्ट प्रसंग आयेगा और पर्वतीय अग्नि के धर्मो की महानसीय अग्नि में विद्यमानता न होने के कारण दृष्टांत में साध्यविकलता आयेगी। इस तरह से समस्त अनुमानो के उच्छेद की आपत्ति आयेगी। वैसे ही अन्वय और व्यतिरेक से ग्रहण होती व्याप्ति सामान्यरुप से ही होती है। क्योंकि विशेष तो अनंत है तथा एक विशेष का धर्म दूसरे विशेष में प्राप्त होता न होने के कारण व्यभिचारी भी है। इसलिए विशेषधर्म की अपेक्षा से अन्वय-व्यतिरेक ग्रहण करना संभव नहीं है। इसलिए प्रस्तुत अनुमान में भी सामान्य बुद्धिमानरुप कर्ता के साथ ही कार्यत्वहेतु की व्याप्ति विवक्षित है। परंतु असर्वज्ञ या शरीरि कर्ताविशेष के साथ व्याप्ति का ग्रहण करना इष्ट नहीं है। __ वैसे भी कार्य करने की सामग्री में शरीर का उपयोग भी नहि है। अर्थात् कार्य करने की सामग्री में शरीर का समावेश नहीं है, क्योंकि शरीर न भी हो, परंतु कारण सामग्री का ज्ञान, कार्य करने की ईच्छा और उसके अनुकूल प्रयत्न होने से कार्योत्पत्ति हो ही जाती है। (जैसे कि प्राणी जब मरता है और नये शरीर को धारण करने के लिए तैयार होता है, उस समय स्थूलशरीर होता नहीं है। फिर भी अपने नये शरीर का कर्ता हो जाता है। इसलिए शरीर अकिंचित्कर है।) इस प्रकार अकिंचित्कर शरीर सहचारी बनने मात्र से कारण नहीं बन जाता । कारण बनने के लिए तो कोई कार्य करता होना चाहिए और यदि सहचारी होने मात्र से ही पदार्थो को कारण मानने का प्रारंभ करोंगे तो धूम प्रति अग्नि का पीलेपन या भूरेपन को भी कारण मानना पडेगा। वैसे ही जब कुम्हार सो रहे हो अथवा दूसरे कार्य में व्यस्त हो, उस समय शरीर विद्यमान होने पर भी घडे की उत्पत्ति नहीं होती है। इसलिए मानना ही पडेगा कि उस समय कुलाल (कुम्हार) होने पर भी ज्ञान, इच्छा और कृत्ति ये तीन में से कोई एकका या तीनो को अभाव होने से घटोत्पत्ति नहीं हुइ है। इसलिए ज्ञान, इच्छा और कृत्ति ये तीन से ही कुम्हार या बुद्धिमान कर्ता में कर्तृत्व आता है। केवल शरीर होने से नहि। इस प्रकार सर्व प्रथम कार्योत्पत्ति में कार्य की कारणसामग्री का ज्ञान करना पडता है उसके बाद कार्य करने की इच्छा होनी चाहिए और कार्य करने के लिए प्रयत्न (कृति) हो तब कार्य की उत्पत्ति होती है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy