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________________ ३३०/९५३ षड्दर्शन समुञ्चय भाग - २, श्लोक - ६२-६३, वैशेषिक दर्शन पृथिवीतेजसोरग्निसंयोगजं यथा सर्पिषः सुवर्णत्रप्वादेश्चाग्निसंयोगाद्रवत्वमुत्पद्यते २४ । वेगःG-86 पृथिव्यप्तेजोवायुमनःसु मूर्तिमद्रव्येषु प्रयत्नाभिघातविशेषापेक्षात्कर्मणः समुत्पद्यते, नियतदिकक्रियाकार्यप्रबन्धहेतुः स्पर्शवद्रव्यसंयोगविरोधी च । तत्र शरीरादिप्रयनाविर्भूतकर्मोत्पन्नवेगवशादिषोरपांतरालेऽपातः, स च नियतदिक्रियाकार्यसंबन्धोन्नीयमानसद्भावः । लोष्टाद्यभिघातोत्पन्नकर्मोत्पाद्यस्तु शाखादौ वेगः । 6-87केचित्तु संस्कारस्य त्रिविधस्य भेदतया वेगं प्राहुः । तन्मते चतुर्विंशतिरेव गुणाः, शौर्योदार्यकारुण्यदाक्षिण्योन्नत्यादीनां च गुणानामेष्वेव प्रयत्नबुद्ध्यादिषु गुणेष्वन्तर्भावान्नाधिक्यम् २५ ।। स्पर्शादीनां गुणानां सर्वेषां गुणत्वाभिसंबन्धो द्रव्याश्रितत्वं निष्क्रियत्वमगुणत्वं च । तथा स्पर्शरसगन्धरूपपरत्वापरत्वगुरुत्वद्रवत्वस्नेहवेगा मूर्तगुणाः । बुद्धिसुखदुःखेच्छाधर्माधर्मप्रयत्नभावनाद्वेषशब्दा अमूर्तगुणाः । सङ्ख्यापरिमाणपृथक्त्वसंयोगविभागा उभयगुणा इत्यादि गुणविषयं विशेषस्वरूपं स्वयं (A)समवसेयम् ।।६३ ।। व्याख्या का भावानुवाद : संस्कार दो प्रकार के है। (१) भावना, (२) स्थितिस्थापक। भावना नाम का आत्मा का गुण ज्ञान से उत्पन्न होता है और ज्ञान का कारण है। अर्थात् अनुभव आदि ज्ञानो से उत्पन्न होनेवाला तथा स्मृति, प्रत्यभिज्ञान आदि ज्ञानो को उत्पन्न करनेवाला भावना नाम का संस्कार है। साक्षात् देखे हुए महसूस किये हुए या सुने हुए पदार्थो का स्मरण, प्रत्यभिज्ञान आदि से इस संस्कार का अस्तित्व सिद्ध होता है। इस संस्कार के बिना स्मरण आदि हो सकता नहीं है। स्थितिस्थापकसंस्कार मूर्तिमान्पदार्थो का गुण है। घन अवयव के संनिवेशविशिष्ट अपने आश्रय को अर्थात् घन अवयववाली कालांतरस्थायिवस्तु को दूसरी अवस्था में ले जाने पर भी उस वस्तु को प्रयत्न से पूर्वावस्था में पुनः स्थापन करता है, उसे स्थितिस्थापक कहा जाता है। जैसे कि, बहोत लम्बेकाल से लपेट के रखे हुए तालपत्र को पसार के रखने पर भी पुनः वे लिपट जाते है। उसमें यह स्थितिस्थापक गुण कारण बनता है। उसी तरह से वृक्ष की शाखा को नीचे से पकडकर झुकाया जाये और फिर छोड देने से पुनः वह इस संस्कार के कारण मूल अवस्था में आ जाती है। धनुष्य को खींच के तीर छोडने के बाद धनुष्य मूल स्थिति में इस संस्कार के कारण आ जाता है। सिंग को या दांत आदि को खिंच के फिर छोड देने से मूल स्थिति में आ जाते है। घडीया के रखे हुए कपडे आदि (A) द्रष्टव्यम् - प्रश० भा० - पृ. ३८-४३ (G-86-87) - तु० पा० प्र० प० । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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