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________________ ३२८/९५१ षड्दर्शन समुञ्चय भाग - २, श्लोक - ६२, ६३, वैशेषिक दर्शन आत्ममनःसंयोगजः स्वकार्यविरोधी धर्माधर्मरूपतया भेदवान् परोक्षोऽदृष्टाख्यो गुणः । तत्र धर्मः G-78पुरुषगुणः कर्तुः प्रियहितमोक्षहेतुरतीन्द्रियोऽन्त्यसुखसंविज्ञानविरोधी, अन्त्यस्यैव सुखस्य सम्यग्विज्ञानेन धर्मो नाश्यते, अन्त्यसुखकालं यावत् धर्मस्यावस्थानात् । स च पुरुषान्तःकरणसंयोगविशुद्धाभिसंधिजो वर्णाश्रमिणां प्रतिनियतसाधननिमित्तः, साधनानि तु श्रुतिस्मृतिविहितानि सामान्यतोऽहिंसादीनि, विशेषतस्तु ब्राह्मणादीनां पृथक्पृथग्यजनाध्ययनादीनि ज्ञातव्यानि १७ । अधर्मोऽप्यात्मगुणःG-79 कर्तुरहितः प्रत्यवायहेतुरतीन्द्रियोऽन्त्यदुःखसंविज्ञानविरोधी १८ । प्रयत्न-80 उत्साहः, स च सुप्तावस्थायां प्राणापानप्रेरकः प्रबोधकालेऽन्तःकरणस्येन्द्रियान्तरप्राप्तिहेतुर्हिताहितप्राप्तिपरिहारोद्यमः शरीरविधारकश्च १९।। व्याख्या का भावानुवाद : ज्ञान को बुद्धि कहा जाता है। ज्ञान (स्वयं अपने स्वरुप को जानता नहीं है, परंतु वह) ज्ञानान्तर -- अनुव्यवसाय के द्वारा गृहीत होता है। वह बुद्धि दो प्रकार की है। (१) विद्या और (२) अविद्या । उसमें अविद्या चार प्रकार की है। (१) संशय, (२) विपर्यय, (३) अनध्यवसाय, और (४) स्वप्न। विद्या भी चार प्रकार की है। (१) प्रत्यक्ष, (२) लैगिंक = अनुमान, (३) स्मृति, (४) आर्ष । प्रत्यक्ष और अनुमान का निरुपण प्रमाण अधिकार में करेंगे । स्मृति अतीतविषयक होती है। अर्थात् अतीतपदार्थो को जाननेवाली स्मृति होती है। वह गृहीतग्राही होने से प्रमाण नहीं है। अर्थात् अनुभव के द्वारा गृहीतपदार्थ को जाननेवाली होने से प्रमाण नहीं है। व्यासादि ऋषीओ को अतीतादि अतीन्द्रियपदार्थो के विषय में तथा धर्म-अधर्म आदि के विषय में (इन्द्रियो की सहायता के बिना) जो प्रातिभज्ञान होता है, वह आर्षज्ञान कहा जाता है। वह प्रातिभज्ञान प्रायः ऋषीओ को ही होता है। कभी कभी लौकिक पुरुषो को भी होता है। जैसे कि, कोई कन्या कहती है "कल मेरा भाई अवश्य आयेगा, इस अनुसार मेरा हृदय कहता है।" यह आर्षज्ञान प्रत्यक्ष ही है । (१३) अनुग्रह = अनुकूलसंवेदन को सुख कहा जाता है। जिसका आत्मा को उपघात करने का स्वभाव है, उसे दुःख कहा जाता है। वह दुःख आमर्ष, दुःखानुभव, विच्छायता = मनमलीनता तथा निस्तेजता का कारण बनता है। (१४-१५) स्व या पर के लिए अप्राप्तपदार्थ को प्राप्त करने की प्रार्थना को "इच्छा" कहा जाता है। काम, अभिलाषा, राग, संकल्प, कारुण्य, वैराग्य, छलने की इच्छा, गूढभाव इत्यादि इच्छा के भेद = रुप ही है। (१६) कर्ता को क्रिया का फल देनेवाला, आत्मा और मन के संयोग से उत्पन्न होनेवाला धर्म और अधर्मरुप दो भेदवाले स्वकार्यविरोधी अपने कार्यभूतसुख - दुःखादि फल से ही जिसका विनाश होता है, उस आत्मा (G-78-79-80) - तु० पा० प्र० प० । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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