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________________ ३०८ / ९३१ षड्दर्शन समुच्चय भाग - २, श्लोक ५८, जैनदर्शन - महान्-बुद्धि जड है, ऐसा कहना भी प्रतीतिविरुद्ध है। बुद्धि तो स्व और पर दोनो का अनुभव करती है। इसलिए बुद्धि को जड मानना स्व-परप्रतीति विरुद्ध है। यदि बुद्धि जड और चेतनशून्य हो तो, उसके द्वारा स्व और पर का अनुभव हो नहीं सकेगा । (३) “सूक्ष्मसंक्षक स्वरादितन्मात्राओं से आकाशादि पांच भूत की उत्पत्ति होती है" - ऐसा जो सांख्यो के द्वारा कहा जाता है, वह भी नित्य एकांतवाद में पूर्वापरविरुद्ध होने से किस तरह से श्रद्धेय बन सकता है ? कहने का मतलब यह है कि, सांख्य एक और मूलप्रकृति को नित्य मानते है और वैसे ही दूसरी ओर वे नित्यप्रकृति से महान - बुद्धि, बुद्धि में से अहंकार, अहंकार में से पांच तन्मात्रा और पांच तन्मात्रा में से पंचमहाभूत की उत्पत्ति मानते है । यह परस्परविरुद्ध है। क्योंकि नित्य मानने में उत्पत्ति तो हो सकती नहीं है। जैसे तुम्हारे मतमें पुरुष कूटस्थनित्य होने से पुरुष की विकृति होती नहीं है। अर्थात् पुरुष में से विकार उत्पन्न होते नहीं है । पुरुषका बंध- मोक्ष होता नहीं है। उस अनुसार से प्रकृति में से भी महादादि विकार उत्पन्न ही नहीं होने चाहिए और प्रकृति का बंध-मोक्ष भी नहीं होना चाहिए। क्योंकि प्रकृति भी कूटस्थनित्य ही है। सदा एक स्वरुप में रहनेवाला पदार्थ कूटस्थ नित्य कहा जाता है। इसलिए प्रकृति को कूटस्थ नित्य भी मानना और उसकी विकृति और बंध-मोक्ष भी मानना वह परस्परविरुद्ध है । (४-५) 'सप्तदश मीमांसकस्य पुनरेवं स्वमतविरोधः । G-39/1 न हिंस्यात्सर्वभूतानि [ ] इति न वै हिंस्रो भवेद् [ ] इति चाभिधाय महोक्षं वा महोजं वा श्रोत्रियाय प्रकल्पयेद् [ याज्ञ० स्मृ० १९९] इति जल्पतो वेदस्य कथं न पूर्वापरविरोधः । तथा " न हिंस्यात्सर्वभूतानि” [ ] इति प्रथममुक्त्वा पश्चात्तदागमे पठितमेवम् । “ षट्शतानि नियुज्यन्ते पशूनां मध्यमेऽहनि । अश्वमेघस्य वचनान्यूनानि पशुभिस्त्रिभिः 119 11" [ ] तथा “अग्नीषोमीयं पशुमालभेत " [ ऐतरेय आ० ६/१३] प्राजापत्यान्पशूनालभेत” [ तैति० सं० १/४] इत्यादि वचनानि कथमिव न पूर्वापरविरोधमनुरुध्यन्ते ? १ । तथानृतभाषणं प्रथमं निषिध्य पश्चादूचे ब्राह्मणार्थेऽनृतं ब्रूयादित्यादि । तथा " न नर्मयुक्तं वचनं हिनस्ति न स्त्रीषु राजन्न विवाहकाले । प्राणात्यये सर्वधनापहारे पञ्चानृतान्याहुरपातकानि ।। २ ।।" [ वसि० धर्म० १६ / ३६ ] तथाऽदत्तादानमनेकधा निरस्य पश्चादुक्तम् । यद्यपि G-40 ब्राह्मणो हठेन परकीयमादत्ते बलेन वा, तथापि तस्य नादत्तादानं, यतः सर्वमिदं ब्राह्मणेभ्यो दत्तं ब्राह्मणानां तु दौर्बल्याद्वृषलाः परिभुञ्जते, तस्मादपहरन् ब्राह्मणः स्वमादत्ते स्वमेव ब्राह्मणो भुङ्क्ते स्वं वस्ते स्वं ददा ३ G-41 तथाS! IS पुत्रस्य गतिर्नास्तीति लपित्वोक्तम् “ अनेकानि सहस्राणि कुमारब्रह्मचारिणाम् दिवंगतानि विप्राणामकृत्वा कुलसंततिम् ।।१।।” इत्यादि । । तथा “न मांसभक्षणे दोषो न मद्ये न च मैथुने । प्रवृत्तिरेषा भूतानां निवृत्तिस्तु महाफला । 19 || ” [ मनु० ५ / ५६ ] इति स्मृतिगते श्लोके । यदि प्रवृत्तिर्निर्दोषा, तदा (G-39 / 1-40-41 ) तु० पा० प्र० प० । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jalnelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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