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________________ षड्दर्शन समुच्चय भाग - २, श्लोक - ५७, जैनदर्शन इसलिए) अवयवी भी अनेक हो जायेंगे । अर्थात् जितने अवयव है, उतने स्वतंत्र अवयवी हो जायेंगे। क्योंकि प्रत्येक अवयव में अवयवी अपने पूर्णरुप से रहता है। (कि जो इष्ट नहीं है।) इसलिए अवयवो से भिन्न अवयवी का अपने अवयवो में रहना कठीन है। इसलिए अवयवो से भिन्न अवयवी मानने का विकल्प उचित नहीं है । २६८/८९१ नन्वभेदपक्षेऽप्यवयविमात्रमवयवमात्रं वा स्यादिति चेत् ? न, अभेदस्याप्येकान्तेनानभ्युपगमात् । किं तर्ह्यन्योन्याविश्लिष्टस्वरूपो विवक्षया संदर्शनीयभेदोऽवयवेष्ववयव्यभ्युपगम्यते, अबाधितप्रतिभासेषु सर्वत्रावयवावयविनां मिथो भिन्नाभिन्नतया प्रतिभासनात्, अन्यथा प्रतिभासमानानामन्यथापरिकल्पने ब्रह्माद्वैतशून्यवादादेरपि कल्पनाप्रसङ्गात् । एवं संयोगिषु संयोगः, समवायिषु समवायो, गुणिषु गुणो, व्यक्तिषु सामान्यं चात्यन्तं भिन्नान्यभ्युपगम्यमानानि तेषु वर्तनचिन्तायां सामस्त्यैकदेशविकल्पाभ्यां दूषणीयानि । तदेवमेकान्तभेदेऽनेकदूषणोपनिपातादनेकान्ते च दूषणानुत्थानादनेकान्तानभ्युपगमात् न मोक्ष इति । अतो वरमादावेव मत्सरितां विहायानेकान्तो ऽभ्युपगतः किं भेदैकान्तकल्पनया अस्थान एवात्मना परिक्लेशितेनेति ।। सांख्यः सत्त्वरजस्तमोभिरन्योन्यं विरुद्धैर्गुणैर्ग्रथितं प्रधानमभिदधान एकस्याः प्रकृतेः संसारावस्थामोक्षसमययोः प्रवर्तननिवर्तनधर्मो विरुद्धौ स्वीकुर्वाणश्च कथं स्वस्यानेकान्तमतवैमुख्यमाख्यातुमीशः स्यात् ? मीमांसकास्तु स्वयमेव प्रकारान्तरेणैकानेकाद्यनेकान्तं प्रतिपद्यमानास्तत्प्रतिपत्तये सर्वथा पर्यनुयोगं नार्हन्ति । अथवा शब्दस्य तत्संबन्धस्य च नित्यत्वैकान्तं प्रति तेऽप्येवं पर्यनुयोज्यात्रिकालशून्यकार्यरूपार्थविषयविज्ञानोत्पादिका नोदनेति मीमांसकाभ्युपगमः । अत्र कार्यतायास्त्रिकाल- शून्यत्वेऽभावप्रमाणस्य विषयता स्यात्, अर्थत्वे तु प्रत्यक्षादिविषयता भवेत्, उभयरूपतायां पुनर्नोदनाया विषयतेति । व्याख्या का भावानुवाद : अवयवी और अवयव के बीच सर्वथा अभेद मानोंगे तो, या तो अवयवी मात्र की सत्ता रहेगी या अवयव मात्र की सत्ता रहेगी। अभेदपक्ष में दोनो की सत्ता नहीं हो सकती और ऐसे प्रकार का सर्वथा (एकांत से) अभेद, हमने (जैनोने) स्वीकार नहीं किया है। परंतु वह अन्योन्य अविश्लिष्ट = संबंधस्वरुप होते है। यद्यपि उसके भेद की विवक्षा हो, तब अवयवो में अवयवी का स्वीकार करते है अर्थात् भेद की विवक्षा हो तब "यह अवयवी है, यह अवयव है" इस प्रकार का भेद किया जाता है । (जैसे आडे - खडे रुप से संबद्ध तंतुओ को छोडकर उससे अत्यंत भिन्न पट नामका अतिरिक्त अवयवी होता ही नहीं है। इसलिए अवयवो में ही अवयवी रहा हुआ है, ऐसा सिद्ध होता है। फिर भी जब भेद की विवक्षा हो, तब “यह अवयव रुप Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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