SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 293
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ षड्दर्शन समुच्चय भाग - २, श्लोक - ५७, जैनदर्शन सामस्त्येन । यद्येकदेशेन तदयुक्तं, अवयविनो निरवयवत्वाभ्युपगमात् । सावयवत्वेऽपि तेभ्योऽवयवी यद्यभिन्नः, ततोऽनेकान्तापत्तिः, एकस्य निरंशस्यानेकावयवत्वप्राप्तेः । अथ तेभ्यो भिन्नोऽवयवी, तर्हि तेषु स कथं वर्तत इति वाच्यम् । एकदेशेन सामस्त्येन वा ? एकदेशपक्षे पुनस्तदेवावर्तत इत्यनवस्था । अथ सामस्त्येन तेषु स वर्तते, तदप्यसाधीयः, प्रत्यवयवमवयविनः परिसमाप्ततयावयविबहुत्वप्रसङ्गात् । ततश्च तेभ्यो भिन्नोऽवयवी न विकल्पभाग् भवति २६६ / ८८९ व्याख्या का भावानुवाद : आप लोगो ने एक ही हेतु के पक्षधर्मत्व, सपक्षसत्त्व, विपक्षासत्त्व अबाधितविषयत्व और असत्प्रतिपक्षत्व, ऐसे पांच रुपो का स्वीकार किया है। वह भी अनेकांतवाद का ही स्वीकार है । (९) एक पृथ्वी के परमाणु में सत्ता के योग से संबंध से सत्त्व, द्रव्यत्व के संबंध से द्रव्यत्व, पृथ्वीत्व के संबंध (समवाय) से पृथ्वीत्व, परमाणुत्व के योग से परमाणुत्व आदि अनेक सामान्य धर्म प्राप्त होते है । आप लोग उसी परमाणु को नित्यद्रव्य में रहनेवाले विशेष पदार्थ से तथा अन्य परमाणुओ से भिन्न मानते है । अर्थात् विशेष मानते है। इसलिए एक ही परमाणु में सामान्यरुपता तथा विशेषरुपता अवश्य है ही और वही अनेकांतवाद का स्वीकार है । (यदि सत्त्व, द्रव्यत्व, पृथ्वीत्व आदि से परमाणुओ का भेद माना जायेगा, तो वह असत्, अद्रव्य और अपृथ्वी बन जायेंगे ।) इसी ही तरह से एक ही देवदत्त के आत्मा में सत्त्व, द्रव्यत्व, आत्मत्व के समवाय से आत्मत्व आदि अनेक सामान्यधर्म प्राप्त होते है और उसी देवदत्त का आत्मा (विनाश और आरंभरुप अवस्थाओ में भी शेष रहनेवाले) नित्य द्रव्यो में कहे हुए विशेष पदार्थ से तथा यज्ञदत्त आदि की आत्माओ से भिन्न भी है। इसलिए उसमें विशेषरुपता भी है । जिस तरह से आत्मा में सामान्यरुपता तथा विशेषरुपता दिखाई देती है, उसी तरह से आकाश, काल आदि द्रव्यो में भी सत्त्व, द्रव्यत्व आदि की अपेक्षा से सामान्यरुपता तथा अन्य द्रव्य, गुण आदि से भिन्न होने के कारण विशेषरुपता होती है । वह स्वयं सोच लेना । (११) (आप लोगोने विशेषपदार्थ का लक्षण करते हुए कहा है कि...) तुल्य आकृतिवाले, तुल्य गुणवाले तथा तुल्य क्रियावाले परमाणुओ में, मुक्तात्मा के निर्गुण आत्माओ में तथा मुक्त जीवो से मुक्त हुए मन में, जिस कारण से योगीयों को - "यह इससे विलक्षण है ।" "यह इससे विलक्षण है" ऐसा विलक्षण प्रत्यय होता है, उसे अन्त्य विशेष कहा जाता है । यहीं प्रत्येक परमाणु आदि आधारो में तुल्याकृतिक्रियत्व और विलक्षणत्व उभय को कहने वाले आप लोग स्याद्वाद का ही स्थापन करते है । ( कहने का मतलब यह है कि, वैशेषिक विशेष नाम के पदार्थ का स्वीकार करके उनके ग्रंथो में लिखते है कि.. परमाणुओ में, मुक्तात्माओ में तथा मुक्तात्माओ से निवृत्त हुए मनो में (उपर कहे अनुसार) आकृति, गुण और क्रिया की समानता होने पर भी " यह इससे विलक्षण है" ऐसा प्रत्यय करानेवाला विशेषपदार्थ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy