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________________ षड्दर्शन समुञ्चय भाग - २, श्लोक - ५७, जैनदर्शन २६१/८८४ (यदि आप ऐसा कहोंगे कि...) अनित्य पदार्थ एक स्वभाववाला होने पर भी सहकारि कारणो की भिन्नता के कारण भिन्न-भिन्न कार्यो को उत्पन्न कर सकता है। तो (हम कह सकते है कि) एक स्वभाववाला नित्य पदार्थ भी सहकारि कारणो की भिन्नता के कारण भिन्न-भिन्न कार्यो को उत्पन्न कर सकेगा। अब यदि आप ऐसा कहोंगे कि, अनित्य पदार्थ नानास्वभावो के द्वारा भिन्न-भिन्न कार्यो को करता है। तो हम भी कहेंगे कि, नित्य पदार्थ भी अनेक स्वभावो के द्वारा भिन्न-भिन्न कार्यो को करेंगे। यदि (आप ऐसा कहोंगे कि) नित्य पदार्थ नाना स्वभाववाला संभवित होता नहीं है, क्योंकि कूटस्थनित्य का एक ही स्वभाव होता है - तो हम भी कहेंगे कि अनित्य पदार्थ भी अनेक स्वभाववाला संभवित होता नहीं है। क्योंकि (आपने) उसको निरंश एक स्वभाववाला माना है। - इसलिए वस्तु को एकांत से नित्य या अनित्य मानने में समान दोष होने से वस्तु को नित्यानित्य उभय स्वरुप मानना ज्यादा श्रेष्ठ है और इसलिए एकांत नित्य पक्ष में तथा एकांत अनित्य पक्ष मे जो कोई दोषो का संभव था, उन सभी दोषो के समूह का परिहार होता है। शंका : एकांत नित्य पक्ष में आपने दोष बताये और एकांत अनित्य पक्ष में भी आपने दोष बताये। उन दोषो को टालने के लिए वस्तु को नित्यानित्य स्वरुप मानी, तो हमको कहना है कि, जो दोष एकांत नित्य और एकांत अनित्यपक्ष में आते थे, वे सभी दोष नित्यानित्यपक्ष में आकर खडे रहेंगे । एकांत नित्य पक्ष में ५० दोष है और एकांत अनित्य पक्ष में ५० दोष है, तो नित्यानित्य पक्ष में तो १०० दोष आकर खडे रहेंगे न? समाधान : आपका यह मात्र अज्ञान का विलास है। क्योंकि आप परमार्थ को समजे ही नहीं है। जैसे गुड कफ करता है और सूंठ पित्त करती है। फिर भी उन दोनो के मिश्रण में से तैयार हुआ औषध (सूंठ की गोली) कफ-पित्त दोनो का नाश करता है। वैसे वस्तु को नित्यानित्य मानने से एकांत दोनो पक्ष में आने वाले सभी दोष नाश होते है। (१२) ___ ज्ञानवादिनोऽपि ताथागताः स्वार्थाकारयोरभिन्नमेकं संवेदनं संवेदनाञ्च भिन्नौ ग्राह्यग्राहकाकारौ स्वयमनुभवन्तः कथं स्याद्वादं निरस्येयुः १ ? तथा संवेदनस्य ग्राह्यग्राहकाकारविकलता स्वप्नेऽपि भवद्भिर्नानुभूयते, तस्या अनुभवे वा सकलासुमतामधुनैव मुक्ततापत्तेः, तत्त्वज्ञानोत्पत्तिर्मुक्तिरिति वचनात् । अनुभूयते च संवेदनं संवेदनरूपतया कथञ्चित् । तत एकस्यापि संवेदनस्यानुभूताननुभूततयानेकान्तप्रतिभासो दुःशकोऽपह्नोतुमिति २ । तथा सर्वस्य ज्ञानं स्वसंवेदनेन ग्राह्यग्राहकाकारशून्यतयात्मानमसंविदत्, संविद्रूपतां चानुभवद्विकल्पेतरात्मकं सदेकान्तवादस्य प्रतिक्षेपकमेव भवेत् ३ । तथा ग्राह्याकारस्यापि युगपदनेकार्थावभासिनश्चित्रैकरूपता प्रतिक्षिपत्येवैकान्तवादमिति ४ ।। व्याख्या का भावानुवाद : (सौ प्रथम यहाँ पंक्ति के आशय स्थान खोलकर बाद में पंक्ति का Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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