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________________ षड्दर्शन समुच्चय भाग - २, श्लोक - ५७, जैनदर्शन अर्थात् अनंतधर्मात्मकता का उत्पादादि त्रयात्मकता के साथ अविनाभाव है, वह बताने के लिए ही यह श्लोक-५७ में “अनंतधर्मात्मक" पद का पुनः प्रयोग किया है । इसलिए पहले के श्लोक - ५६ में “अनंतधर्मात्मक” पद का ग्रहण किया होने पर भी इस श्लोक में पुनः ग्रहण करने से, यह पुनरुक्ति दोष की शंका मत करे । प्रयोग : वस्तु अनंतधर्मात्मक होती है। क्योंकि उसमें उत्पादादि तीन धर्म होते है । जो अनंतधर्मात्मक नहीं है, उसमें उत्पादादि तीन धर्म होते नहीं है । जैसे कि, आकाशकुसुम । यह केवल व्यतिरेकी अनुमान वस्तु को निर्विवादरुप से अनंतधर्मात्मक सिद्ध करती है और जिस अनुसार से एक वस्तु में अनंता धर्म है, उसे पहले बताया ही है । २३७/८६० धर्म उत्पन्न होते है और विनाश पाते है, धर्मी द्रव्यरुप से स्थिर रहता है, नित्य है । धर्म और धर्मी में कथंचित् अभेद होने के कारण धर्मी हंमेशा विद्यमान होने से अर्थात् धर्मी सदा स्थायी और नित्य है, तो उससे अभिन्न कालत्रयवर्ती धर्म भी कथंचित् शक्तिरुप से हंमेशा रहता है। अर्थात् धर्म और धर्मी कथंचित् अभिन्न है और धर्मी हंमेशा विद्यमान रहता होने से उससे अभिन्न ऐसे त्रिकालवर्ती धर्म भी कथंचित् शक्तिरुप से हंमेशा विद्यमान ही है। अन्यथा ( अर्थात् धर्मी नित्य विद्यमान होने पर भी उससे अभिन्न ऐसे धर्म कथंचित् शक्तिरुप से विद्यमान न हो तो) धर्मो की अविद्यमानता में धर्मो से कथंचित् अभिन्न ऐसे धर्मी भी अविद्यमान बन जाने की आपत्ति आयेगी । न च धर्मिणः सकाशादेकान्तेन भिन्ना एवाभिन्ना एव वा धर्माः, तथानुपलब्धेः, कथञ्चित्तदभिन्नानामेव तेषां प्रतीतेश्च । न चोत्पद्यमानविपद्यमानतत्तद्धर्मसद्भावव्यतिरेकेणापरस्य धर्मिणोऽसत्त्वमेवेति वक्तव्यं धर्म्याधारविरहितानां केवलधर्माणामनुपलब्धेः, एकधर्म्याधाराणामेव च तेषां प्रतीतेः, उत्पद्यमानविपद्यमानधर्माणामनेकत्वेऽप्येकस्य तत्तदनेकधर्मात्मकस्य द्रव्यरूपतया ध्रुवस्य धर्मिणोऽबाधिताध्यक्षगोचरस्यापह्नोतुमशक्यत्वात्, अबाधिताध्यक्षगोचरस्यापि धर्मिणोऽपह्नवे सकलधर्माणामपह्नवप्रसङ्गात् । तथा च सर्वव्यवहारोच्छेदप्रसक्तिरिति सिद्धमनन्तधर्मात्मकं वस्तु । प्रयोगश्चात्र - विवादास्पदं वस्त्वेका नेकनित्यानित्यसदसत्सामान्यविशेषाभिलाप्यानभिलाप्यादिधर्मात्मकं, तथैवास्खलत्प्रत्ययेन प्रतीयमानत्वात्, यद्यथैवास्खलत्प्रत्ययेन प्रतीयमानं तत्तथैव प्रमाणगोचरतयाभ्युपगन्तव्यम् यथा घटो घटरूपतया प्रतीयमानो घटतयैव प्रमाणगोचरोऽभ्युपगम्यते न तु पटतया, तथैवास्खलत्प्रत्ययेन प्रतीयमानं च वस्तु, तस्मादेकानेकाद्यात्मकं प्रमाणगोचरतयाभ्युपगन्तव्यम् । न चात्र स्वरूपासिद्धो हेतु:, तथैवास्खलत्प्रत्ययेन प्रतीयमानत्वस्य सर्वत्र वस्तुनि विद्यमानत्वात् । न हि द्रव्यपर्यायात्मकाभ्यामेकानेकात्मकस्य १ नित्यानित्यात्मकस्य २ स्वरूपपररूपाभ्यां सदसदात्मकस्य सजातीयेभ्यो विजातीयेभ्यश्चानुवृत्तव्या च Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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