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________________ षड्दर्शन समुञ्चय भाग - २, श्लोक - ५५, जैनदर्शन २१५/८३८ व्याख्या का भावानुवाद : द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव इत्यादि प्रकारो के द्वारा घट के जो जो स्व-धर्म और पर- धर्म कहे गये, वे उभयधर्मो के द्वारा घट को एक साथ बोलने के लिए संभव नहीं है। अर्थात् उभय धर्मो की अपेक्षा से शब्द से घट अवक्तव्य है। क्योंकि कोई भी ऐसा शब्द विद्यमान नहीं है कि जिससे घट के कहे जाते स्व-पर दोनो धर्म भी एक साथ कहे हुए होते है। अर्थात् कोई भी ऐसा शब्द नहीं है कि घट के सर्व स्व-पर धर्मो का कथन एक साथ कर सके। क्योंकि शब्द के द्वारा कहे जाते धर्म क्रमशः ही प्रतीत होते है। (शब्द की प्रवृत्ति संकेतानुसार होती है। फिर भी) संकेतित शब्द भी क्रम से ही स्व-पर धर्मो को बताते है। युगपत् (एकसाथ) नहीं । जैसे कि... शत्तृ और शानच् का संकेतित सत् शब्द । (कहने का मतलब यह है कि शब्द की प्रवृत्ति संकेत के अनुसार से होती है। इसलिए कहा जा सकता है कि "जैसे शत और शानच् दोनो प्रत्ययो की सत् संज्ञा दोनो भी प्रत्ययो का कथन करती है। उसी ही तरह से दोनो धर्मो का जो शब्द का संकेत किया जाता है, उसके द्वारा दोनो धर्मो का युगपत् कथन हो जायेगा। परंतु यह बात उचित नहीं है क्योंकि शतृ और शानच् की सत् संज्ञा दोनो प्रत्ययो का क्रम से ही ज्ञान कराती है। युगपत् नहि। इसलिए संकेत करने पर भी शब्द द्वारा दोनो धर्मो का प्रधानरुप से कथन नहीं हो सकता। इसलिए (प्रति द्रव्य-क्षेत्र-कालादि की अपेक्षा से घट में रहे हुए स्व-पर धर्मो को एकसाथ कहने की इच्छा होने पर भी युगपत् कथन करनेवाला शब्द न होने से) घट में प्रतिद्रव्य-क्षेत्रादि की अपेक्षा से रहे हुए तमाम स्व-पर धर्मो के प्रकारो की अवक्तव्यता है। अर्थात् घट में रहे हुए स्व-पर धर्म अवक्तव्य होने के कारण घट में रही हुई अवक्तव्यता भी (घट का) स्वधर्म होती है। उस अवक्तव्य घट की अनंता वक्तव्यधर्मो से तथा अनंताद्रव्यो से व्यावृत्ति होती होने के कारण (घट के)इस तरह से अनंता परधर्म भी होते है। घट में जिस अनुसार से अनंतधर्मात्मकता बताई गई, उस अनुसार से सभी आत्मादि पदार्थो में अनंत धर्मात्मकता सोच लेना। __ आत्मा में भी चैतन्य, (कर्मो का) कर्तृत्व, (कर्मो का) भोक्तृत्व, (जगत के पदार्थो का ज्ञान पाने स्वरुप) प्रमातृत्व, (प्रमाका (ज्ञानका) विषय होने के कारण) प्रमेयत्व, (रुपादि का अभाव होने से) अमूर्तत्व, (असंख्यात आत्मप्रदेश होने से) असंख्यातप्रदेशत्व, (वे असंख्यात आत्मप्रदेशो में से आठ आत्मप्रदेश ऐसे है कि जिसके उपर कर्मबंध होता नहीं है। कर्मबंध में कारणभूत चंचलता का अभाव उस आठ आत्मप्रदेशो में होने से) निश्चल-अष्टप्रदेशत्व, (तीन भवोपग्राहि कर्मो की स्थिति आयुष्यकर्म की स्थिति के समान करने के लिए किये जाते केवली समुद् घात में आत्मा के असंख्यातप्रदेश लोक में फैल जाते है। इसलिए लोकाकाश के जितने प्रदेश है उतने ही उसके प्रदेश होने से) लोकप्रमाणप्रदेशत्व, जीवत्व, (मोक्ष गमन की अयोग्यतारुप) अभव्यत्व, (मोक्षगमन की योग्यतारुप) भव्यत्व, (परिवर्तनशीलतारुप) परिणामीत्व (जो जो शरीर मिला हो, उस शरीर में फैल के रहने स्वरुप स्वशरीर व्यापित्व.. इत्यादि सहभावी धर्म होते है। आत्मा में हर्ष-शोक, सुख-दुःख, मत्यादि ज्ञान- उपयोग, चक्षुःदर्शनादि दर्शन-उपयोग, देव-नारक Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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