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________________ १७८/८०१ षड्दर्शन समुञ्चय भाग - २, श्लोक - ५४, जैनदर्शन नहीं है वह मिथ्यादृष्टि है। उसका ज्ञान मिथ्या है । इसलिए गंधहस्ति द्वारा महातर्क में कहा गया है कि, "मिथ्यादृष्टि को बारह अंगरुप श्रुत भी मिथ्या है।" इस प्रकार जो नौ तत्त्वो की श्रद्धा रखते है, उसको सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान का सद्भाव होने से सर्वसावधव्यापार की निवृत्ति स्वरुप सर्वचारित्र तथा अल्पांश से पाप की निवृत्तिरुप देशचारित्र की योग्यता प्राप्त होती है। यहाँ ज्ञान से सम्यग्दर्शन की प्रधानता होने से पूज्य है और इसलिए उसको (रत्नत्रयी रुप मोक्षमार्ग में) प्रथम ग्रहण किया हुआ है। इसके द्वारा निश्चित होता है कि, सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान के सद्भाव में ही चारित्र होता है। अन्यथा नहि । ॥५३॥ (मू. श्लो.) तथाभव्यत्वपाकेन यस्यैतत्रितयं भवेत् । सम्यग्ज्ञानक्रियायोगाज्जायते मोक्षभाजनम् ।।५४ ।। श्लोकार्थ : जो भव्यात्मा को तथाभव्यत्व (मोक्षगमन की योग्यतास्वरुप भव्यत्व गुण) के परिपाक से (सम्यग्दर्शन - सम्यग्ज्ञान - सम्यग्चारित्र रुप) रत्नत्रयी प्राप्त होती है। वह भव्यात्मा सम्यग्ज्ञान और सम्यक्रिया (चारित्र) के योग से मोक्ष का भाजन बनता है = मोक्ष प्राप्त कर लेता है। व्याख्या-जीवा द्वेधा भव्याभव्यभेदात्, अभव्यानां सम्यक्त्वाद्यभावः, भव्यानामपि भव्यत्वपाकमन्तरेण तदभाव एव, तथाभव्यत्वपाके तु तत्सद्भावः, ततोऽत्रायमर्थः-भविष्यति विवक्षितपर्यायेणेति भव्यः, तद्भावो भव्यत्वं, भव्यत्वं नाम सिद्धिगमनयोग्यत्वं, जीवानामनादिपारिणामिको भावः, एवं सामान्यतो भव्यत्वमभिधायाथ तदेव प्रतिविशिष्टमभिधातुमाहतथा-तेनानियतप्रकारेण भव्यत्वं तथाभव्यत्वम्, अयं भावः-भव्यत्वमेव स्वस्वकाल क्षेत्रगुर्वादिद्रव्यलक्षणसामग्रीभेदेन नानाजीवेषु भिद्यमानं सत्तथाभव्यत्वमुच्यते, अन्यथा तु सर्वैः प्रकारैरेकाकारायां योग्यतायां सर्वेषां भव्यजीवानां युगपदेव धर्मप्राप्त्यादि भवेत, तथाभव्यत्वस्य यः पाकः फलदानाभिमुख्यं तेन तथाभव्यत्वपाकेन, यस्य कस्यापि सागरोपमकोट्यभ्यन्तरानीतसर्वकर्मस्थितिकस्य भव्यस्य एतत्रितयं ज्ञानदर्शनचारित्रत्रयं भवेत्, यत्तदोर्नित्याभिसम्बन्धात्, स भव्यः सम्यक-समीचीने ये ज्ञानक्रिये-ज्ञानचारित्रे तयोर्योगात्संयोगान्मोक्षस्य-बन्धवियोगस्या-नन्तज्ञानदर्शनसम्यक्त्वसुखवीर्यपञ्चकात्मकस्य भाजनं-स्थानं जायते, एतेन केवलाभ्यां ज्ञानक्रियाभ्यां न मोक्षः किं तूभाभ्यां संयुक्ताभ्यां ताभ्यामिति ज्ञापितं भवति । अत्र ज्ञानग्रहणेन सदा सहचरत्वेन दर्शनमपि ग्राह्यम्, यदुवाच वाचकमुख्यः “सम्यग्ज्ञानदर्शनचारित्राणि मोक्षमार्गः” [त० सू० १/१] इति ।।। व्याख्या का भावानुवाद : जीवो के दो प्रकार है। भव्य और अभव्य । अभव्य जीवो को सम्यक्त्वादि रत्नत्रयी का अभाव होता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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