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________________ षड्दर्शन समुच्चय भाग - २, श्लोक - ५२, जैनदर्शन होगी। जैसे वायु स्वभाव से सर्वत्र पहुंच जाता है। वैसे प्रकृति भी मोक्ष में आत्मा के भोग के लिए स्वभाव से पहुंच जाती है। और वह स्वभाव नित्य होने के कारण तब भी विद्यमान ही है। इसलिए किसी भी तकलीफ के बिना मोक्ष में आत्मा के भोग के लिए पहुंच जायेगी । प्रवृत्ति के स्वभाववाला वायु जो पुरुष को वायु पसंद न हो अर्थात् वायु की विरुपता जो पुरुष को मालूम हुई है, उस पुरुष के प्रति उसकी प्रवृत्ति का स्वभाव नाश नहीं होता है। अर्थात् जिसको वायु पसंद न हो उसके पास न जाना, ऐसा वायु से नहीं होता है। वैसे मोक्षावस्था में प्रकृति की कुरुपता को जानने वाले आत्मा के प्रति प्रकृति का स्वभाव नष्ट नहीं हो जाता और इसलिए मोक्षावस्था में भी आत्मा के भोग के लिए प्रकृति पहुंच जाती हो, तो आत्मा का मोक्ष किस तरह से होगा ? अथवा मोक्षावस्था में प्रकृति का पुरुष, भोगस्वरुप स्वभाव विद्यमान नहीं है वैसा कहोंगे तो प्रकृति का नित्यतारुप स्वभाव ही चला जायेगा । अर्थात् प्रकृति का नित्यस्वभाव नहीं माना जा सकेगा, क्योंकि पूर्वस्वभाव का त्याग और उत्तर स्वभाव का स्वीकार कूटस्थ नित्य पदार्थ में संभव नहीं है। वह तो परिणामिनित्य पदार्थ में ही संभव है। अर्थात् परिणामि नित्य पदार्थ में ही पूर्व स्वभाव का त्याग और उत्तरस्वभाव के स्वीकार का विरोध नहीं है। १५८/ ७८१ यदि प्रकृति को परिणामिनित्य स्वीकार करोंगे तो आत्मा को भी परिणामिनित्य स्वीकार करना चाहिए । क्योंकि आत्मा भी मोक्ष में अपने पूर्व के सांसारिक सुख भुगतने के स्वभाव का परिहारपूर्वक उस सांसारिक सुख को नहि भुगतने के स्वभाववाला स्वीकार किया गया है तथा आत्मा मोक्ष में अमुक्तत्वादिस्वभाव के त्यागपूर्वक मुक्तत्वादिस्वभाव का स्वीकार करता है तथा आत्मा परिणामिनित्य सिद्ध होने पर भी सुखादि परिणामो के द्वारा भी आत्मा को परिणामी स्वीकार करना पडेगा । अर्थात् आत्मा में ज्ञान, सुख आदि परिणाम भी मानने चाहिए । यदि आत्मा का अनंत सुखादि रुप में परिणमन न होता हो, तो उसका मोक्ष भी नहीं हो सकेगा । इसलिए किसी भी तरह से सांख्यो के द्वारा परिकल्पित मोक्ष संगत होता नहीं है । इस प्रकार परिणामिनित्य स्वरुपवाले आत्मा में ही अनंत सुखादि स्वरुप का स्वीकार करना चाहिए। अर्थात् आत्मा को परिणामिनित्य स्वरुपवाला तथा अनंतज्ञानादि स्वरुपवाला स्वीकार करना चाहिए । अथ सौगताः संगिरन्ते । ननु ज्ञानक्षणप्रवाहव्यतिरेकेण कस्याप्यात्मनोऽभावात्कस्य मुक्तौ ज्ञानादिस्वभावता प्रसाध्यते ? मुक्तिश्चात्मदर्शिनोदूरोत्सारिता-यो हि पश्यत्यात्मानं स्थिरादिरूपं तस्यात्मनि स्थैर्यगुणदर्शननिमित्तस्त्रेोऽवश्यंभावी, आत्मस्नेहाञ्चात्मसुखेषु परितृप्यन् सुखेषु तत्साधनेषु च दोषांस्तिरस्कृत्य गुणानारोपयति, गुणदर्शी च परितृप्यन्ममेतिः सुखसाधनान्युपादत्ते । ततो यावदात्मदर्शनं तावत्संसार एव । तदुक्तम्-“यः पश्यत्यात्मानं तत्रास्याहमिति शाश्वतस्नेहः । स्नेहात्सुखेषु तृप्यति तृष्णा दोषांस्तिरस्कुरुते । ।१ ।। गुणदर्शी परितृप्यन्ममेति सुखसाधनान्युपादत्ते । तेनात्माभिनिवेशो यावत्तावत्स संसारः । । २ । । आत्मनि सति परसंज्ञा स्वपरविभागात्परिग्रहद्वेषौ । अनयोः संप्रतिबद्धाः सर्वे दोषाः समायान्ति । । ३ । ।" [ प्र० For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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