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________________ १५०/७७३ षड्दर्शन समुञ्चय भाग - २, श्लोक - ५२, जैनदर्शन उपरांत आप यह बताये की मोक्ष में इन्द्रियजन्य बुद्धि आदि गुणो का उच्छेद आप सिद्ध करना चाहते हो या इन्द्रियो की सहायता के बिना ही केवल आत्मा से उत्पन्न होनेवाला अतीन्द्रिय बुद्धि आदि गुणो का उच्छेद आप सिद्ध करना चाहते हो ? उसमें प्रथमपक्ष में सिद्धसाधनदोष आता है। (जिसका प्रतिवादि स्वीकार करता हो, उस सिद्ध पदार्थो को सिद्ध करने का प्रयत्न करना उसे सिद्धसाधन दोष कहा जाता है। प्रथम पक्ष में सिद्ध साधन दोष आता है।) क्योंकि प्रतिवादि ऐसा हमारे द्वारा उसका स्वीकार किया ही गया है। इसलिए उसको सिद्ध करने के लिए अनुमान प्रयोग बताना निरर्थक है। दूसरे विकल्प में तो मोक्ष पाने के लिए कोई भी व्यक्ति प्रवृत्ति करेगी नहीं, मोक्ष के लिए होता पुरुषार्थ असंगत बन जायेगा । क्योंकि सभी मोक्षार्थी जीव (संसार के सुख से अतिशयित सुख तथा अतिशयितज्ञानादि को प्राप्त करने की अभिलाषा से ही मोक्ष प्राप्ति के पुरुषार्थ में प्रवर्तित होते है। परंतु पत्थर की शिला के टुकडो के समान सकलसुख के संवेदन से रहित (संवेदनरहित) आत्मा का उत्पाद करने के लिए प्रयत्न करते नहीं है। तथा यदि मोक्षावस्था में भी पाषाणसमान लेशमात्र भी सुख के संवेदनरहित आत्मा होता है, तो उस मोक्ष से क्या लाभ ? संसार ही श्रेष्ठ है। क्योंकि संसार में समय समय पे (दुःख के बाद) थोडा सा भी सुख होता है। इसलिए वैशेषिको के द्वारा कल्पित मोक्ष में जाने के लिए किसीको भी इच्छा नहीं होती है। इसलिए कहा है कि... "गौतमऋषि वैशेषिको के द्वारा कल्पित जडमुक्ति में जाना नहीं चाहते है। परंतु वृन्दावन के जंगल में श्यालो के साथ रहना अच्छा मानते है।" एतेन यदूचुर्मीमांसका [चु¥यायिका] अपि-“यावदात्मगुणाः सर्वे, नोच्छिन्ना वासनादयः । तावदात्यन्तिकी दुःखव्यावृत्ति वकल्प्यते ।।१ । । धर्माधर्मनिमित्तो हि, संभवः सुखदुःखयोः । मूलभूतो च तावेव, स्तम्भौ संसारसद्मनः ।।२ ।। तदुच्छेदे च तत्कार्यशरीराद्यनुपप्लवात् । नात्मनः सुखदुःखे स्त, इत्यसौ मुक्त उच्यते ।।३ ।। ननु तस्यामवस्थायां, कीदृगात्मावशिष्यते । स्वरूपैकप्रतिष्ठानः, परित्यक्तोऽखिलैर्गुणैः ।।४।। उर्मिषटकातिगं रूपं, तदस्याहुर्मनीषिणः । संसारबन्धनाधीनदुःखक्लेशाद्यदूषितम् ।।५।।" [न्यायम० प्रमे० पृ० ७] उर्मयः F-15कामक्रोधमदगर्वलोभदम्भाः, “नहि वै सशरीरस्य प्रियाप्रिययोरपहतिरस्ति, अशरीरं वा वसन्तं प्रियाप्रिये न स्पृशतः" [छान्दो० ८/१२/१]-16 इत्यादि, तदप्यपास्तं द्रष्टव्यम् । यतः किं शुभकर्मपरिपाकप्रभवाणि भवसंभवानि सुखानि मुक्तौ निषिध्यमानानि सन्त्युत सर्वथा तदभावः । आये सिद्धसाधनम् । द्वितीयेऽसिद्धः आत्मनः सुखस्वरूपत्वात् । न च पदार्थानां स्वरूपमत्यन्तमुच्छिद्यते, अतिप्रसङ्गात् । न च सुखस्वभावत्वमेवासिद्धं, तत्सद्भावे प्रमाणसद्भावात् । तथाहि-आत्मा सुखस्वभावः-17, अत्यन्तप्रियबुद्धिविषयत्वात् -18अनन्यपरतयोपादीयमानत्वाञ्च, (F-15-16-17-18)- तु० पा० प्र० प० । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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