SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 175
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ षड्दर्शन समुच्चय भाग - २, श्लोक - ५२, जैनदर्शन “संतानत्व” हेतु असिद्ध नहीं है। क्योंकि पक्ष ऐसे बुद्धि इत्यादि विशेषगुणो में रहता है। हेतु विरुद्ध भी नहीं है। क्योंकि सपक्ष ऐसे प्रदीप में वृत्ति है। हेतु अनैकान्तिक (व्यभिचारी) नहीं है । क्योंकि विपक्ष ऐसे परमाणु में वृत्ति नहीं है। हेतु कालात्ययापदिष्ट (बाधित) भी नहीं है। क्योंकि साध्य से विपरीत अर्थ का साधक प्रत्यक्ष या अनुमान कोई भी प्रमाण नहीं है । १४८/ ७७१ बुद्धि आदि गुणो के संतान के उच्छेद में कारण कौन बनता है ? इस प्रश्न का उत्तर अब देते है - निरंतर शास्त्र के अभ्यास से किसी पुरुष को तत्त्वज्ञान उत्पन्न होता है । तत्त्वज्ञान से मिथ्याज्ञान की निवृत्ति होती है। मिथ्याज्ञान की निवृत्ति होने से उसके कार्यभूत राग-द्वेष नष्ट हो जाते है । राग-द्वेष के अभाव में राग-द्वेष के कार्यभूत मन-वचन-काया का व्यापार बंध होता है। उससे धर्माधर्म - पुण्य-पाप की उत्पत्ति होती नहीं है। जो पुण्य-पाप पहले संचित किये हुए है, उसमें से जिनको शरीर इत्यादि उत्पन्न करके फल देने का आरंभ किया है। वह फल भुगतके विनाश किया जाता है तथा जो अभी उदय में आया नहीं, सत्ता में विद्यमान है, उसका भी एकसाथ अनेक शरीर आदि उत्पन्न करके, उसके फल को भुगत के ही नाश किया जाता है। इस प्रकार से पुण्य-पाप इत्यादि की परंपरा का सर्वथा उच्छेद होने से संतान - उच्छेद स्वरुप मोक्ष होता है । 1 अत्र प्रतिविधीयते । यत्तावदुक्तं “संतानत्वात्" इत्यादि, तदसमीचीनं, F-12 आत्मनः सर्वथा भिन्नानां बुद्ध्यादिगुणानां संतानस्योच्छेदः साध्यतेऽभिन्नानां वा कथंचिद्भिन्नानां वा ? । आद्यपक्षे आश्रयासिद्धो हेतुः, संतानिभ्योऽत्यन्तं भिन्नस्य सन्तानस्यासत्कल्पत्वात् । द्वितीयपक्षे तु सर्वथाऽभिन्नानां तेषामुच्छेदसाधने संतानवत् संतानिनोऽप्युच्छेदप्रसङ्गः । ततश्च कस्यासौ मोक्षः ? भिन्नाभिन्नपक्षाभ्युपगमे चापसिद्धान्तः । किंच अविरुद्धश्चायं हेतुः, कार्यकारणभूतक्षणप्रवाहलक्षणसंतानत्वस्य नित्यानित्यैकान्तयोरसंभवात् I अर्थक्रियाकारित्वस्यानेकान्त एव प्रतिपादिष्यमाणत्वात् । साध्यविकलश्च दृष्टान्तः, प्रदीपादेरत्यन्तोच्छेदासंभवात्, तैजसपरमाणूनां भास्वररूपपरित्यागेनान्धकाररूपतयावस्था प्रयोगश्चात्र पूर्वापरस्वभावपरिहाराङ्गीकारस्थितिलक्षणपरिणामवान्प्रदीपः, सत्त्वात्, घटादिवदिति । अत्र बहु वक्तव्यं तत्त्वभिधास्यते विस्तरेणानेकान्तप्रघट्टके । किंच - 13 इन्द्रियजानां बुद्ध्यादिगुणानामुच्छेदः साध्यमानोऽस्ति भवता उतातीन्द्रियाणाम् ? तत्राद्यपक्षे सिद्धसाधनं, अस्माभिरपि तत्र तदुच्छेदाभ्युपगमात् । द्वितीयविकल्पे मुक्तौ कस्यचिदपि प्रवृत्त्यनुपपत्तिः । मोक्षार्थी हि सर्वोऽपि निरतिशयसुखज्ञानादिप्राप्त्यभिलाषेणैव प्रवर्तते, न पुनः शिलाशकलकल्पमपगतसकलसुखसंवेदनमात्मानमुपपादयितुं यतते, यदि मोक्षावस्थायामपि पाषाणकल्पोऽपगतसुखसंवेदनलेशः पुरुषः संपद्यते, तदा कृतं मोक्षेण, संसार ( F-12-13-14 ) - तु० पा० प्र० प० । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy