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षड्दर्शन समुच्चय भाग - २, श्लोक - ५२, जैनदर्शन
गतिः । उर्ध्वमेव तु तद्धर्मा, भवति क्षीणकर्मणाम् ।। ७ ।। ततोऽप्यूर्ध्वगतिस्तेषां, कस्मान्नास्तीति चेन्मतिः । धर्मास्तिकायस्याभावात् स हि हेतुर्गतेः परम् ।।८।। " ।। त.भा.१०/७ ।। धर्मास्तिकायस्य गतिहेतुत्वं पुरापि व्यवस्थापितमेवेति ।
१४४ /७६७
व्याख्या का भावानुवाद :
शंका : रागादिधर्म धर्मी ऐसे आत्मा से भिन्न है या अभिन्न है ? यदि रागादिधर्म आत्मा से भिन्न हो तो सभी जीव वीतराग और सिद्ध हो जायेंगे। क्योंकि रागादि से भिन्न है | जैसे मुक्तात्मा रागादि से भिन्न होने के कारण वीतराग और सिद्ध है, वैसे सभी आत्मा भी रागादि से भिन्न होने के कारण वीतराग और सिद्ध है। यदि रागादि धर्मो से आत्मा अभिन्न है, तो रागादि का क्षय होने से आत्मा का भी क्षय हो जायेगा ।
समाधान : धर्म और धर्मी में भेद ही नहीं है। क्योंकि दोनो के बीच अभेद विद्यमान है। दोनो के बीच अभेद ही नहीं है । क्योंकि दोनो के बीच भेद का सद्भाव है। (इस प्रकार रागादि धर्म और आत्मा कथंचित् भिन्न और कथंचित् अभिन्न होने से) आपने कहे हुए दोष का अवकाश नहीं है। अर्थात् हम धर्म और धर्मी का सर्वथाभेद या सर्वथाअभेद नहीं मानते है । परंतु भेद और अभेद से विलक्षण कथंचित् भेदाभेद मानते है । इसलिए आपने बताये हुए दोषो का अवकाश नहीं है।
शंका : जब कार्मणशरीर आदि का अत्यंतवियोग होता है । तब लोक के अंतभाग तक जीव की उर्ध्वगति किस तरह से होती है ?
समाधान : पूर्वप्रयोग आदि द्वारा जीव की उर्ध्वगति होती है। इसलिए तत्त्वार्थ भाष्य में कहा है कि..... “सर्वकर्मबन्ध का उच्छेद होने से तुरंत ही जीव लोक के अग्रभाग के प्रति गति करता है । जीव की उर्ध्वगति के कारण है - पूर्वप्रयोग, असंगत्व = निर्लेपता, बन्धच्छेद - निर्बंध तथा उर्ध्वगौरव स्वभाव । जैसे कुम्हार का चक्र की एकबार दंड से गति देने के बाद दंड ले लेने के बाद भी गति चालू रहती है। झूले को एकबार खिंचकर छोडने से वह पूर्वप्रयोग के कारण लक्ष्य तक पहुंच जाता है। वैसे (जीव ने कर्म के योग से संसार में बहोत गति की थी, अब कर्मबंध नाश होने पर भी पूर्वप्रयोग के कारण) उर्ध्वगति करता है। वही सिद्धिगति कही जाती है। जैसे मिट्टी के लेप दूर होने से (पानी में डूबा हुआ) तुम्बरा पानी के समतल उपर आ जाता है वैसे कर्म का संग दूर होने से जीव ऊर्ध्वगति करता है। उसे ही सिद्धिगति कहा जाता है । जैसे एरण्ड का बकला (कांचला) फूटते ही उसमें से एरण्ड का बीज बाहर उछलता है, वैसे ही कर्मबंध का विच्छेद होने से सिद्ध की भी उर्ध्वगति चाही जाती है । श्रीजिनेश्वर परमात्माओ के द्वारा उर्ध्वगौरव धर्मवाले जीव और अधोगौरव धर्मवाले पुद्गल कहे जाते है। अर्थात् जीव में ऐसे प्रकार का गौरव है कि वह स्वभावत: उर्ध्व की ओर गति करता है और पुद्गल में ऐसे प्रकार का गौरव है कि वह स्वभावतः अधः गति करता है। जैसे मिट्टी का पत्थर, वायु और अग्निज्वाला स्वभावतः अनुक्रम से अधो (नीचे की ओर) तिरछी ओर उर्ध्व गति में (उपर की ओर) प्रवर्तित होते है, वैसे आत्मा की स्वभावतः उर्ध्वगति है। जीवो की अधो,
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