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________________ षड्दर्शन समुच्चय भाग - २, श्लोक, ४८-४९, जैनदर्शन में देखने को मिलते है। सूर्य की गति का वाचक शब्द तो काल के अर्थ में कहीं प्रयोजित हुआ दिखाई देता नहीं है। इसलिए लोकप्रसिद्ध काल को स्वतंत्रद्रव्य मानना चाहिए। इसलिए कहा है कि "सभी आप्त = प्रामाणिक पुरुष युगपत्, अयुगपत्, क्षिप्र, शीघ्र, चिर- अचिर, यह पर यह अपर, यह होगा, यह नहि होगा, यह था, यह नहीं है, यह है" इस तरह से काल की अपेक्षा करके व्यवहार करते है, बोलते है। इसलिए निश्चित मानना चाहिए कि सभी लोगो को काल मान्य है । अर्थात् सभी लोग काल के अस्तित्व का स्वीकार करते है। यदि कालद्रव्य न हो तो बीता हुआ दिन (कल), आज, परसों, यह वर्तमानसमय, पिछे का समय, बहोत, जल्दी, रात, दिन, अभी, सुबह, शाम इत्यादि काल संबंधित व्यवहार किस तरह से होंगे ? यह व्यवहार कालद्रव्य बिना सिद्ध नहीं हो सकता है | ॥१-३॥ " सजातीय ऐसे वृक्षादि वस्तुओ का एक ही काल में ऋतु से किये गये विभागरुप और समय के नियमन से किये गये विभागरुप विचित्र परिणाम नियामक कारण के बिना होता नहीं है । इसलिए कोई नियामककारण है और वही काल है, ऐसा जानना । तथा "घट नाश हुआ" "घट नाश होगा" और "घट नाश हो रहा है" इत्यादि अतीत- वर्तमान- अनागत स्वरुप तीन काल के विभाग में निमित्तभूत तथा परस्पर असंकीर्ण और व्यवहार को अनुसरित होता क्रिया का व्यपदेश काल के बिना होता नहीं है । तथा ‘ज्येष्ठ में परत्व स्वरुप और कनिष्ठ में अपरत्वरुप' ज्ञान में निमित्तभूत कोई कारण होना चाहिए, वही काल है। १२५ / ७४८ पुद्गलाः प्रत्यक्षानुमानागमावसेयाः, कटघटपटलकुटशकटादयोऽध्यक्षसिद्धाः, अनुमानगम्या इत्थम्-स्थूलवस्त्वन्यथानुपपत्त्या सूक्ष्मपरमाणुद्व्यणुकादीनां सत्तावसीयते, आगमगम्यता चैवं “पुग्गलत्थिकाए" इत्यादि । तथा परमाणवः सर्वेऽप्येकरूपा एव विद्यन्ते, पुनवैशेषिकाभिमतचतुस्त्रि - ६१४ द्व्यणुकस्पर्शादिगुणवतां पार्थिवाप्यतैजसवायवीयपर E-98 न माणूनां जातिभेदाच्चतूरूपाः । यथा लवणहिंगुनी स्पर्शनचक्षुरसनघ्राणयोग्येऽपि जले विलीने सती लोचनस्पर्शनाभ्यां ग्रहीतुं न शक्ये परिणामविशेषवत्त्वात् एवं पार्थिवादिपरमाणवोऽप्येकजातीया एव परिणतिविशेषवत्त्वात् न सर्वेन्द्रियग्राह्या भवन्ति, न पुनस्तज्जातिभेदादिति -११ । शब्दादीनां तु पौद्गलिकतैवं ज्ञेया-शब्दः पुद्गलद्रव्यपरिणामः, तत्परिमूर्तत्वात्, मूर्तता चोरः कण्ठशिरोजिह्वामूलदन्तादिद्रव्यान्तरविक्रियापिप्पल्यादिवत् 1 तथा ताड्यमानपटहभेरीजल्लरितलस्थकिलिञ्चादि E-99 णामता चास्य पादनसामर्थ्यात् प्रकम्पनात् 1 तथा शङ्खादिशब्दानामतिमात्रप्रवृद्धानां श्रवणबधिरीकरणसामर्थ्यम् - 100 अ. तत्र Jain Education International चत्तारि अत्थिकाया अजीवकाया पण्णत्ता, तं जहा - धम्मत्थिकाए, अधम्मत्थकाए, आगासत्थिकाए पोग्गलत्थिकाए ।” स्थानांग स्थान ४ उदृद० १. सू. २५१ । (E-98-99-100) - तु० पा० प्र० प०। ( F-1-2) - तु० पा० प्र० प० । For Personal & Private Use Only www.jalnelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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