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________________ षड्दर्शन समुच्चय भाग - २, श्लोक, ४८-४९, जैनदर्शन नोपलभ्यन्ते । तत्कथं तेषामभावः ? तानि सन्त्येव, पुनः समानाभिहारान्नोपलब्धिः ८ । तथा चोक्तं सांख्यसप्ततौ [७] ।। “अतिदूरात्सामीप्यादिन्द्रियघातान्मनोनवस्थानात् । सौक्ष्म्याद्व्यवधानादभिभवात्समानाभिहाराच्च ।। १ ।।” इति ।। एवमष्टधापि सत्स्वभावानामपि भावानां यथानुपलम्भोऽभिहितः एवं धर्मास्तिकायादयोऽपि विद्यमाना अपि स्वभावविप्रकर्षान्नोपलभ्यन्त इति मन्तव्यम् ।। व्याख्या का भावानुवाद : ( ४ ) मन का अनवस्थान है । अर्थात् मन दूसरी जगह पे उपयुक्त होने के कारण (इन्द्रियो का पदार्थ के साथ व्यापार होने पर भी) पदार्थ उपलब्ध होता नहीं है । जैसे चक्षुइन्द्रिय की पटुतावाला व्यक्ति दूसरी जगह में मन भटकता होने से वस्तु को देखता नहीं है। उसमें वस्तु तो उपलब्ध है। परंतु मन की अनुपयोगदशा के कारण पदार्थ उपलब्ध होता नहीं है। तथा कहा है कि "जैसे कोई (लक्ष्य के उपर एकाग्र दृष्टिवाला) धनुर्धर अपने पास से परिवार सहित (ठाठमाठसे) जाते राजा को देखता नहीं है । (क्योंकि बाणावली (धनुर्धर) का मन दूसरी जगह पे है ।) उस तरह से एकाग्रचित्त से ध्यान करना चाहिए। तो क्या राजा वहाँ से जाता नहीं था ? राजा जाता तो था ही। परंतु बाणावली का मन अन्यत्र होने के कारण उसको दिखता नहीं था । अथवा जिन का चित्त नाश हो गया है, उसको विद्यमान पदार्थ की भी उपलब्धि होती नहीं है। ११७ / ७४० (५) उसी अनुसार से पदार्थ की सूक्ष्मता से भी पदार्थ अनुपलब्ध रहता है । जैसे घर छेदवाले भाग में से निकलता और आता धुंआ (धूम), उष्मा और त्रसरेणु सूक्ष्म होने से उपलब्ध होते नहीं है । अथवा परमाणु - द्वयणुकादि, सूक्ष्मनिगोद आदि उपलब्ध होते नहीं है। इसलिए क्या वह विद्यमान नहीं है ? विद्यमान तो है, परंतु सूक्ष्म होने से उपलब्ध होते नहीं है। (६) आवरण से भी पदार्थ उपलब्ध होता नहीं है । दिवाल के व्यवधान से या ज्ञानादि के आवरण से पदार्थ उपलब्ध होता नहीं है। उसमें दिवालादि के व्यवधान से पदार्थ उपलब्ध होता नहीं है। जैसे कि, दिवाल के पीछे रही हुई वस्तु उपलब्ध होती नहीं है। तो क्या वस्तु नहीं है ? वस्तु तो है ही। परंतु दिवालरुप व्यवधान से उपलब्ध होती नहीं है। इसी अनुसार से अपनी पीठ के, कान के या मस्तक के पीछे रही हुई विद्यमान वस्तु भी उपलब्ध होती नहीं है । तथा चंद्रमंडल का पीछे का भाग विद्यमान होने पर भी आगे के भाग से व्यवहित होने के कारण दिखाई देता नहीं है । ज्ञानादि के आवरण से भी पदार्थ की उपलब्धि होती नहीं है । जैसे कि, मतिमंदता के कारण शास्त्रकथित सूक्ष्मपदार्थ विशेष विद्यमान होने पर भी उपलब्ध होते नहीं है । अथवा समुद्र के पानी के जत्थे का परिमाणा होने पर भी मापा नहीं जा सकता अथवा विस्मृति से पहले उपलब्ध हुई वस्तु की भी उपलब्धि होती नहीं है। मोह से विद्यमान ऐसे जीवादितत्त्वो की भी उपलब्धि नहीं होती है । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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