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________________ षड्दर्शन समुच्चय भाग - २, श्लोक, ४८-४९, जैनदर्शन उपरोक्त दोनो प्रयोगो में भी उष्णस्पर्श में और बाष्प में जो निमित्तभूत उष्णस्पर्शवाली वस्तु है, वह तैजसशरीर से युक्त आत्मा नाम की वस्तु ही स्वीकार करनी चाहिए। क्योंकि पानी में उष्णस्पर्श और बाष्प की निमित्तभूत अन्य वस्तु का अभाव है। शंका : शीतकाल में कूडे के ढेर के कचरे में से भी बाष्प नीकलती दिखाई देती है और उसकी भीतर में उष्णस्पर्श (गरमी) भी बहोत होती है। परंतु कूडे के ढेर में कोई उष्णस्पर्शवाली वस्तु तो नहीं है। इसलिए उपरोक्त अनुमान का प्रकृतहेतु व्यभिचारी बनता है। ९५ / ७१८ समाधान: आपको ऐसी शंका नहीं करना चाहिए। क्योंकि बाष्प और उष्ण स्पर्श (गरमी) दोनो भी कूड़े की ढेर की बीच में उत्पन्न हुए और बाद में मृत हुए (मरे हुए) जीवो के शरीर के निमित्त से उत्पन्न होते है । इसलिए कूडे के ढेर के बीच में रहे हुए उष्णस्पर्श वाले मृत जीवो के शरीर के योग से बाष्प और उष्णस्पर्श की उत्पत्ति होती होने से हेतु व्यभिचारी बनता नहीं है । I शंका : कूडे के ढेर के बीच में रहे हुए मृतजीवो के शरीर में उष्णस्पर्श और बाष्प उत्पन्न होने में कौन निमित्त बनता है 1 समाधान: जैसे अग्नि में गरम किये हुए पत्थर या इंट के टुकडो के उपर पानी डालने से शांत हो चुकी अग्नि में से भी उष्णस्पर्श और बाष्प नीकलते है, उसी ही तरह से शीत का संयोग होने पर भी कूडे के ढेर में से बाष्प और गरमी का नीकलना युक्तियुक्त है। इस अनुसार से अन्यत्र भी बाष्प और उष्णस्पर्श निमित्तभूत सचित्त या अचित्त उष्णस्पर्शवाला पदार्थ बनता है। वह यथासंभव सोच लेना । इसी ही तरह से शीतकाल में पर्वत की गुफाओ की नजदीक में रहे हुए वृक्षादि के नीचे जो उष्मा का अनुभव होता है, उसे भी मनुष्य के शरीर के उष्मा की तरह जीवहेतुक ही जानना । ग्रीष्मकाल में (गर्मी के समय) बाह्यताप से तैजस शरीर रुप में अग्नि मंद होने से जलादिकी अंदर जो शीतल स्पर्श होता है । उसे भी मनुष्य शरीर के शीतलस्पर्श की तरह जीवहेतुक स्वीकार करना चाहिए । इसलिए इस प्रकार के स्वरुप को भजनेवाला (रखनेवाले) अप्काय जीव होते है। इस तरह से पानी में जीव की सिद्धि होती है। अब अग्नि में जीव की सिद्धि की जाती है 1 एवमङ्गा यथा रात्रौ खद्योतकस्य देहपरिणामो जीवप्रयोगनिर्वृत्तशक्तिराविश्चकास्ति, रादीनामपि प्रतिविशिष्टप्रकाशादिशक्तिरनुमीयते जीवप्रयोगविशेषाविर्भावितेति । यथा ज्वरोष्मा जीवप्रयोगं नातिवर्तते, एषैवोपमाग्नेयजन्तूनां नच मृता ज्वरिणः क्वचिदुपलभ्यन्ते, एवमन्वयव्यतिरेकाभ्यामग्नेः सचित्तता ज्ञेया । प्रयोगश्चात्र-आत्मसंयोगाविर्भूतोऽङ्गारादीनां प्रकाशपरिणामः, शरीरस्थत्वात्, । तथात्मसंयोगपूर्वकोऽङ्गारा खद्योतदेहपरिणामवत् Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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