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________________ षड्दर्शन समुञ्चय भाग - २, श्लोक, ४८-४९, जैनदर्शन ७३/६९६ अनुमान प्रमाणभूत ही नहीं है। अनुमान को प्रमाण के रुप में स्वीकार करने में भी अनुमान से विवक्षित अर्थ की प्रतीति नहीं हो सकती है। पूर्वपक्ष ( चार्वाक ): "चैतन्य की उत्पत्ति भूतो से होती है" यह सिद्ध करनेवाला निम्नोक्त अनुमान है - "शरीर रुप में परिणत हुए भूतो से चैतन्य उत्पन्न होता है क्योंकि शरीर के सद्भाव में ही चैतन्य का सद्भाव होता है। जैसे, महुडे आदि के मिश्रण में से मदशक्ति उत्पन्न होती है और उसे दारु (शराब) कहा जाता है वैसे भूतो का जब शरीर के रूप में विशिष्ट निश्चय होने से चैतन्य उत्पन्न होता है, तब वही आत्मा कहा जाता है, ।" इस अनुमान से चैतन्य की भूतकार्यता सिद्ध की जा सकती है। जैन ( उत्तरपक्ष): आपकी बात उचित नहीं है क्योंकि अनुमानप्रयोग में कहा हुआ शरीर के सद्भाव में ही चैतन्य का सद्भाव होता है, यह हेतु अनैकान्तिक (व्यभिचारि) है। क्योंकि मृत अवस्था में शरीर विद्यमान होने पर भी चैतन्य का अभाव होता है। इसलिए आपके अनुमान से चैतन्य की भूतकार्यता सिद्ध होती नहीं है। चार्वाक (पूर्वपक्ष): पृथ्वी, जल, तेजस् और वायु स्वरुप चार भूतो से चैतन्य उत्पन्न होता है। मृतशरीर में वायु होता नहीं है। इसलिए वायु के अभाव से मृतशरीर में चैतन्य का अभाव होता है। इसलिए हमारे उपरोक्त अनुमान में हेतु अनैकान्तिक नहीं है। उत्तरपक्ष (जैन): शरीर में छिद्र होने से शरीर में सुतरां वायु संभवित है। शरीर के नाक इत्यादि कुछ खास भागो में खाली जगह होती है, उसमें वायु होने की पूरी संभावना है और हवा तो थोडा भी अवकाश मिले वहां पहुंच जाती होती है। उपरांत वायु का अभाव होने से चैतन्य का अभाव आप कहते हो, तो गुदा इत्यादि के मार्ग द्वारा पेट में भरपूर हवा भर दी जाये तो मृत अवस्था में भी शरीर में चैतन्य उत्पन्न होगा। पंरतु वैसे वायु का संपादन करने पर भी चैतन्य प्राप्त होता नहीं है। इसलिए चैतन्य शरीर का कार्य नहीं है। पूर्वपक्ष (चार्वाक) : हम केवल वायु के सद्भाव में चैतन्य का सद्भाव मानते नहीं है। परंतु प्राणअपान अर्थात् श्वास - उश्वास स्वरुप वायु के अभाव से मृतअवस्था में शरीर में चैतन्य का अभाव है। अर्थात् मृतअवस्था में शरीर में सांस लेने छोडने की (श्वासोश्वास की) क्रिया चलती नहीं है। तत्स्वरुप वायु के अभाव से चैतन्य का अभाव है। उत्तरपक्ष (जैन): श्वासोश्वास चालू रहने का चैतन्य के साथ कोई अन्वय - व्यतिरेक मिलते नहीं है। इसलिए श्वासोश्वास स्वरुप वायु की चैतन्य के प्रति हेतुता नहीं है। अर्थात् श्वासोश्वास स्वरुप वायु चैतन्य का कारण नहीं है। क्योंकि मरणावस्था में प्रचुरत्तर दीर्घ श्वासोश्वास का संभव होने पर भी चैतन्य का अत्यंत परिक्षय देखने को मिलता है तथा ध्यान में एकाग्र - बंध लोचनवाले, मन-वचन-काया के योग को संवृत्त करनेवाले निस्तरंग महासमुद्रसमान श्वासोश्वास का निरोध करनेवाले कोई योगी को भी परमप्रकर्ष चेतना Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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