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षड्दर्शन समुच्चय भाग-१, परिशिष्ट-८, व्याख्या की शैली का परिचय
(२) आह किमर्थं गोचरदिशुद्धया योगो मृग्यत इत्याशंक्याह -
लोकशास्त्राऽविरोधेन यद्योगो योग्यतां व्रजेत् ।
श्रद्धामात्रैकगम्यस्तु हन्त नेष्टो विपश्चिताम् ॥२२॥ (योगबिंदु) (३) आह - किमर्थमीदृशं वचनं मृग्यते ? उच्यते
दृष्टबाधैव यत्रास्ति ततोऽदृष्टप्रवर्तनम् ।
असच्छद्धाभिभूतानां केवलं ध्यान्ध्यसूचकम् ॥२४।। (योगाबिंदु) (६८) जिस प्रकार पूर्वपक्ष उत्तरपक्ष की स्थापना की शैली है उसी प्रकार प्रश्नोत्तर की भी शैली है।
(१) अथ.... उच्यते । यहां "अथ" से प्रश्न और "उच्यते" से उत्तर का प्रारंभ होता है। (२) कंई बार प्रश्न का प्रारंभसूचक "अथ" शब्द न होने पर भी "इत्याह" कहकर उत्तर दिया जाता
(३) अथ.... तथा सति....।
"अथ" से प्रश्न और "तथा सति" से उत्तर का प्रारंभ होता भी दिखाई देता है। (६९) टीका की पंक्तिओ में पठन के वक्त कंई बार विभक्तिओ को निकालकर पठन करना होता है।
(१) पंक्तिओ में षष्ठी पंचमी विभक्ति का प्रयोग हो तब उन दोनो विभक्तिओ को निकालकर पठन करना।
जैसे कि- उपचारस्यापि मुख्यार्थस्पर्शित्वात् । (षष्ठी निकाल दे (त्व सहित पंचमी निकाल दे ।) अर्थ : उपचार भी मुख्यार्थस्पर्शि होता है।)
(२) टीका में तत्त्वनिरुपण के अवसर पर एक पंक्ति में विधान किया जाता है और उसके बाद की दूसरी पंक्ति में उस विधान करने का कारण बताया जाता है। वह दूसरी कारणसूचक पंक्ति के अंत में पंचमी विभक्ति का प्रयोग होता है। पठन करते समय उस द्वितीय पंक्ति के पहले क्योंकि... कहकर अंत में रही हुई पंचमी विभक्ति को निकालकर सीधा अर्थ करे ।
जैसे कि... अयं च पञ्चप्रकारोऽप्याशयो भावः अनेन विना चेष्टा कायवाङ्मनोव्यापाररुपा द्रव्यक्रिया तुच्छा असारा, अभिलषितफलासाधकत्वादित्येतदर्थः । (योगविंशिका गाथा १ टीका) भावार्थ : यह प्रणिधानादि पांच प्रकार का आशय भाव है। इस भाव के बिना चेष्टा = मन-वचन-काया के व्यापाररुप द्रव्यक्रिया तुच्छ = असार है। क्योंकि (ऐसी द्रव्यक्रिया) इच्छित फल की साधक बनती नहीं है। इस अनुसार से भावार्थ जानना। (७०) टीकाकार अपनी बात की पुष्टि के लिए सुविहित अन्य ग्रंथ का अनुसंधान देते होते है । तब उस साक्षीपाठ को रखने के बाद "इति वचनात्" पद रखते होते है। (उदा. के लिए देखे मुद्दा - ३१) (७१) टीका में कई बार पंक्ति का प्रारंभ यत्र, तत्र, अत्र शब्दो से होता है। वैसे स्थान पे "तत्र" इत्यादि शब्दो
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