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षड्दर्शन समुच्चय भाग -१, परिशिष्ट-१, वेदांतदर्शन
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साधनमार्ग : भगवान् को अपने वश में करने का सर्वश्रेष्ठ साधन भक्ति ही है। कर्म का उपयोग चित्त की शुद्धि कर उसे ज्ञान तथा भक्ति के उपयुक्त आधार बनाने में है। ज्ञान की प्रकाररुपा भक्ति केवल ज्ञान' से नितान्त विलक्षण है। ज्ञान दो प्रकार का होता है-केवल ज्ञान तथा विज्ञान । 'त्वं' पदार्थ के ज्ञान से कैवल्यज्ञान का उदय होता हैं, 'तत्' पदार्थ के चिन्तन से भगवत्प्रसाद का लाभ होता हैं, सायुज्यादि मुक्ति की उपलब्धि होती हैं। फलतः विज्ञान अर्थात् भक्ति के द्वारा भक्त न केवल भगवत्-प्रसाद को ही प्राप्त करता है, अपितु भगवान् को भी अपने वश में कर लेता है (भगवद्वशीकार) । अतः भगवद्वशीकार को उत्पन्न करने के कारण भक्ति ही श्रेष्ठ साधन है। संवित् तथा ह्लादिनी शक्तियों का सम्मिश्रण भक्ति का सार है। ये दोनों शक्तियाँ भगवान् का ही स्वरूप हैं, अत: भक्ति भगवद्रूपिणी है। यह भक्ति स्वरूपात्मक होने से भगवान् का पृथग्-विशेषण हैं, परन्तु भक्तों का पृथग् विशेषण है।
भगवान् के दो रूप होते हैं- (१) ऐश्वर्य, जिसमें उनके परमैश्वर्य का विकास होता है तथा (२) माधुर्य, जिसमें नरतनुधारी भगवान् मनुष्य के समान ही चेष्टा किया करते हैं। ऐश्वर्य का ज्ञान माधुर्य के ज्ञान से भिन्न है। ऐश्वर्यज्ञान से सम्पन्न जीव भगवत्सान्निध्य में स्वकीय भाव को भूल कर सम्भ्रम तथा आदर के भाव से अभिभूत हो जाता हैं, परन्तु माधुर्य ज्ञान से सम्पन्न होने पर वह वात्सल्य, सख्य आदि स्वीय भावों को खो नहीं बैठता । भक्ति भी दो प्रकार की होती हैं- "विधि भक्ति' और 'रुचिभक्ति' या राग । विधिभक्ति में भक्तिशास्त्र में निर्दिष्ट उपायों का अवलम्बन नितान्त उपादेय है। दृप्त भक्त अपने प्रयत्न से 'देवयान' का आश्रय कर सिद्धि लाभ करते हैं, परंतु आर्त भक्तों पर भगवान् की अहैतुकी कृपा होती है। वह स्वयं उन्हें अपने वाहन के द्वारा स्वेच्छा से परमधाम की प्राप्ति करा देते हैं। विधिभक्ति से रागात्मिका नितान्त श्रेयस्कर हैं । इस में भक्त भगवान् को अपने प्रियतम रुप से ग्रहण करता हैं, तथा अलौकिक आनन्द का आस्वादन करता हुआ भगवत्-धाम को प्राप्त करता है व्रजगोपिकाओं में प्रत्यक्ष दृष्ट इसी उत्तमा भक्ति का सुन्दर वर्णन नारदपाञ्चरात्र ने किया हैं । सर्वोपाधिविनिर्मुक्तं तत्परत्वेन निर्मलम् । हृषीकेण हृषीकेशसेवनं भक्तिरुच्यते ॥ (नारदपाञ्चरात्र)
यह भक्ति अन्य दर्शनों के समान उपायभूता न होकर उपेयभूता है। मुक्तात्माओं के लिए यही भक्ति सेवानन्द' का रूप धारण कर प्रकट होती हैं। भगवान् श्रीकृष्ण के चरणारविन्द की सेवा से जो आनन्दलाभ होता है वह मोक्ष से भी बढकर होने के कारण ‘पञ्चम' पुरुषार्थरूप से गौड़ीय वैष्णवसम्प्रदाय में ग्रहण किया गया है। इस भक्तिरस की सांगोपांग कल्पना चैतन्यमत की मुख्य विशेषता हैं, जिसका पाण्डित्यपूर्ण विवेचन रूपगोस्वामी ने भक्तिरसामृतसिन्धु में किया।
चैतन्यमत का संक्षिप्त वर्णन भक्तवर श्रीविश्वनाथ चक्रवर्ती ने बड़ी सुन्दरता के साथ किया है :- "आराध्यो भगवान् व्रजेशतनयस्तद्धाम वृन्दावनं रम्या काचिदुपासना व्रजवधूवर्गेण वा कल्पिता । शास्त्र भागवतं प्रमाणममलं प्रेमा पुमर्थो महान् श्रीचैतन्यमहाप्रभोर्मतमिदं तत्रादरो नः परः॥"
इस तरह से वेदांत की शाखायें हैं और उनके शिष्यो-प्रशिष्यो ने अपने-अपने आचार्यो के मतो में संस्करण -संवर्धन करके प्रवर्तित की हुए अनेकानेक प्रशाखायें वेदांतमें देखने को मिलती हैं।
उपासना की दृष्टि से सोचे तो श्रीशांकरमत, श्रीभास्करमत और श्रीविज्ञानभिक्षुका मत ब्राह्मतंत्र में माना जाता हैं। श्रीवल्लभाचार्य, श्रीरामानुजाचार्य, श्रीमाध्वाचार्य और श्रीनिम्बकाचार्य का मत वैष्णव तंत्र में गिना जाता हैं। श्रीकंठ का मत शैवतंत्र में गिना जाता हैं । वेदांत अनुसार जीव कोई न कोई रुप में ब्रह्म का ही अंश हैं और अंत में मोक्ष होने से या तो ब्रह्म में सर्वथा लय पाता हैं अथवा तो सदृश होकर ब्रह्मलोक में स्थिर होता हैं।
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