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षड्दर्शन समुच्चय भाग-१, परिशिष्ट-१, वेदांतदर्शन
वस्तु हैं। परन्तु जगत् मिथ्या नहीं हैं। जगत् ब्रह्म का ही अविकृत परिणाम हैं । जगत् ब्रह्म की लीला हैं। जीव परब्रह्म का अंश हैं।
"शुद्धाद्वैत' सिद्धांत शब्दार्थ की दृष्टि से अद्वैतसिद्धांत का सबसे बडा प्रतिपादक हैं। श्रीशंकराचार्य ने जहाँ ब्रह्म के साथ माया का स्वीकार कीया हैं और उसके कारण जगत का आविर्भाव स्वीकार किया हैं, वहाँ श्रीवल्लभाचार्य माया का सर्वथा अस्वीकार करके केवल ब्रह्म एक ही शुद्धतत्त्व माना हैं। [मायासम्बन्धरहितं शुद्धमित्युच्यते बुद्धैः । कार्यकारणरुपं हि शुद्धं ब्रह्म न मायिकम् ॥(शुद्धाद्वैत मा. २८)] __उस ब्रह्म में से जगत और जीव प्रादुर्भाव पाते हैं। और उसमें ही लीन हो जाते हैं। भगवान सच्चिदानंद रुप हैं। जब उनकी इच्छा होती हैं, तब अपने तीन गुण के सहित ईश्वर के रुप में प्रकट होते हैं और अपने गुणो से जीव और जगत् की रचना करते हैं। ईश्वर में सत्, चित् और आनंद ये तीनो तत्त्व उपस्थित रहते हैं। परंतु आनंद की प्रधानता रहती हैं। ईश्वर अपने आनंद अंश को तिरोहित करके जीव की सृष्टि करते हैं । इसलिए जीव में चित् और सत् दो ही तत्त्व रहते हैं। जिसमें चित् (चैतन्यता) की प्रधानता रहती हैं । उपरांत, ईश्वर चित् और आनंद दोनो अंशों को तिरोहित करके जड तत्त्व की रचना करते हैं । इसलिए उसमें केवल एक गुण (सत्ता) ही रहता हैं। ___ इस सिद्धांत में शंका हो सकती हैं कि, भगवान तो स्वभाव से "आप्तकाम' होने से उनको कोई इच्छा होती ही नहीं हैं। तो फिर वे जीव और जगत का सर्जन क्यों करते हैं ? श्रीवल्लभाचार्य इस शंका का समाधान देते हए कहते हैं कि, भगवान ये सब लीला के रुप में करते हैं। जिनको वे अपनी स्वेच्छा से करते हैं। परन्तु ईश्वर की लीला (क्रीडा) और बालक की क्रीडा में अन्तर भेद यह हैं कि, बालक को उसमें प्रयत्न करना पडता हैं, जब कि ईश्वर को प्रयत्न नहीं करना पडता हैं । यह लीला तो केवल भगवान की इच्छामात्र से उनके अन्दर ही होती हैं। जब भगवान इस लीला को समेट लेते हैं , तब फिर से एकमात्र शुद्ध ब्रह्मरुप ही रहता हैं। श्रीवल्लभाचार्य के 'मद्रूपमद्वयं ब्रह्म आदिमध्यान्तवर्जितम् । स्वप्रभं सच्चिदानन्दं भक्त्या जानाति चाव्ययम्' ॥ वासुदेवोपनि० १॥
एवं सच्चिदानन्द आनन्दकन्दो मथुराचन्द्रः श्रीकृष्णचन्द्रो भगवानेव चास्ति जगन्नियन्ता परमपिता परमेश्वरः । स च सर्वज्ञः सर्वशक्तिमान् शुद्धो बुद्धो मुक्तस्वभावस्तथाऽर्जुनं प्रति गीताश्रावकः । दोग्धा गोपालनन्दनोऽप्ययमेव भगवान् कृष्णः । अयमेव चाऽ प्रति ब्रूते- 'भक्त्या मामभिजानाति' इति । व्यासोऽपि स्वयं साक्षाद् वदति यत्- 'कृष्णस्तु भगवान् स्वयम्'। -भागवते। ... अस्य श्रीवल्लभाचार्यस्याऽऽत्मजः श्रीविट्ठलनाथ एकं 'विद्वन्मण्डल' नामकं ग्रन्थं व्यरचयत् । एवमस्यैव दर्शनस्य प्राधान्यबोधकास्तथा पुष्टिमार्गसमर्थकाः सन्त्यन्यान्यविद्वन्मण्डलविनिर्मिता ग्रन्थाः । येषां कतिपयग्रन्थानामत्रापि समुल्लेखो विधीयते। तथाहि- १. 'भावप्रकाशिका'-श्रीकृष्णचन्द्रविरचिता । २. 'प्रमेयरत्नार्णवः'-बालकृष्णविनिर्मितः । ३. 'शुद्धाद्वैतमार्तण्डः'-श्रीगिरिधरमहाराजरचितः । ४. 'अमृततरङ्गिणी'-पुरुषोत्तमनिर्मिता । ___ एवमन्येऽपि सन्ति बहवो ग्रन्थाः पुष्टिमार्गप्रवर्तकाः । ये च खलु ग्रन्था अमुमेव शुद्धाऽद्वैतमार्गम्, पुष्टिमार्गभूतं प्रभूतं मार्ग समर्थयन्ति प्रकाशयन्ति च । मार्गान्तरञ्च विडम्बयन्ति निर्भर्त्सयन्ति चेति ।
अयमेव खलु प्रागुक्तं सद्गुरुप्रसादात् श्रवणादिना प्राप्तं परमतत्त्वविषयकज्ञानमार्गं सम्प्राप्य समुपाश्रित्य च मम परस्य ब्रह्मणः सच्चिदानन्दस्य आनन्दकन्दस्य श्रीकृष्णचन्द्रस्य साधर्म्य (पूर्णत्वम् = ब्रह्मभावम्) आगता मुनयो महामुनयो वा यतयो योगिनो वा सर्गेऽपि नोपजायन्ते तथा प्रलयेऽपि च न व्यथन्ति (नहि व्यथां प्राप्नुवन्ति) अर्थात् ते जनन-मरणात्मकमहादुःखतः सर्वथा विनिर्मुक्ता भवन्ति । तथा चोक्तं भगवता कृष्णेन- 'इदं ज्ञानमुपाश्रित्य मम साधर्म्यमागताः । सर्गेऽपि नोपजायन्ते प्रलये न व्यथन्ति च'॥ -श्रीभगवद्गीता, १४।२।
अपि च-'ब्रह्म सम्पद्यते योगी न भूयः संसृति व्रजेत्' । एवं तत्परमतत्त्वविषयकं ज्ञानमुपाश्रित्य योगी ब्रह्म सम्पद्यते, न पुनः प्रलये महाप्रलये वा स संसृतिं लभते व्रजति वेत्यपि बोध्यम्।
अत एवेमे मायां नाङ्गीकुर्वन्ति, कथयन्ति च- 'मायामात्रमिदं द्वैतमद्वैतं परमार्थतः' । -सर्वदर्श० वल्लभा० । (दर्शनशास्त्रस्येति - हासः, पृ-६९-७०-७१)
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