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षड्दर्शन समुच्चय भाग - १, परिशिष्ट -१, वेदांतदर्शन
होता हैं और भगवान् की सेवा करने के निमित्त धारण किया जाता हैं। इसी नित्य विभूति का नाम त्रिपाद विभूति, परम पद, परम व्योम, अमृत, वैकुण्ठ, अयोध्या - आदि हैं।
साधन-मार्ग-ईश्वरभक्ति :- वेदान्त के शुष्क अध्ययन से कुछ भी सिद्ध नहीं होता । यह तो पुस्तकों का ज्ञान हैं, तथा किसी के द्वारा अनुभूत तथ्य की शाब्दिक पुनरावृत्ति हैं। यथार्थ ज्ञान तो अपरोक्ष ज्ञान हैं। ज्ञान के बिना मुक्ति नहीं मिलती-उपनिषदों का यह मन्तव्य बिल्कुल ठीक हैं, परन्तु ज्ञान का अर्थ क्या हैं ? यथार्थ ज्ञान ईश्वर की ध्रुवा स्मृति या निरन्तर स्मरण को कहते हैं । यही उपासना या भक्ति हैं । भगवान् की प्राप्ति में भक्ति ही मुख्य साधन हैं, जिसकी प्राप्ति में वैदिक कर्मो का अनुष्ठान साधक तथा सहायक होता हैं । अत: जहाँ श्री शंकराचार्य केवल ज्ञान के मार्ग को ही उपादेय बतलाते हैं, वहाँ श्री रामानुजाचार्य ज्ञानकर्म-समुच्चयवादी हैं, अर्थात् कर्म की सहायता उपलब्ध ज्ञानरूप भक्ति को ही जीव के विस्तार के लिए श्रेष्ठ उपाय मानते हैं । भक्ति से प्रसन्न होकर जब भगवान् जीव के समस्त बन्धनों और क्लेशों का नाश कर देता हैं, तब उसे ब्रह्मज्ञान हो जाता हैं। भक्ति का भी सर्वश्रेष्ठ तात्पर्य प्रपत्ति से हैं । प्रपत्ति ही ईश्वरीय अनुकम्पा पाने का सर्वश्रेष्ठ साधन हैं । 'शरणागति' का लक्ष्य हैं शरण में आना अर्थात् भगवान् ही हमारी गति हैं, गन्तव्य स्थान हैं। वहीं लौट कर आना ही शरणागति का लक्ष्य हैं। शरणापन्न जीव ही भगवत्कृपा का प्रिय पात्र बनता हैं-भक्ति शास्त्र का यही निष्कर्ष हैं।
सकल-कल्याणगुणनिधान भगवान् नारायण के अनुग्रह से ही जीव इस विषम संसार से मुक्ति लाभ करता हैं । मुक्ति के लिए कर्म भी उपादेय हैं। वेद-विहित कर्म के अनुष्ठान से चित्त की शुद्धि होती हैं । अतः वर्णाश्रमविहित कर्मो का विधान मानव मात्र का कर्तव्य हैं । चित्तशुद्धि होने पर ही ब्रह्म की जिज्ञासा उत्पन्न होती हैं । अत: कर्ममीमांसा का अध्ययन ज्ञानमीमांसा के लिए आवश्यक तथा पूर्ववर्ती हैं। कर्म साथ भक्ति के उदय होने में ज्ञान सहकारी कारण हैं । मुक्ति के उदय होने में भक्ति ही प्रधान कारण हैं और भक्ति में भी परा प्रपत्तिशरणागति । जबतक जीव भगवान् के शरण में नहीं जाता, तबतक उसका परम कल्याण नहीं हो सकता । परन्तु शरणागति के लिए कर्मो का अनुष्ठान उचित हैं या अनुचित ? इस पर श्रीवैष्णव आचार्यों में पर्याप्त मतभेद हैं । 'टेंकलै' मत के संस्थापक श्रीलोकाचार्य प्रपत्ति के लिए कर्मानुष्ठान को आवश्यक नहीं मानते । मार्जारकिशोर की ओर दृष्टिपात कीजिए। बिल्ली का बच्चा निःसहाय भाव से माता के शरण में उपस्थित होता हैं, तब बिल्ली उसे अपने मुँह में रखकर एक स्थान से दूसरे स्थान पर पहुँचा देती हैं। भक्त के प्रति भगवान् की कृपा भी उस प्रकार 'अहेतुकी' होती हैं। नारायण की अनुग्रहशक्ति का उदय भक्तों की दीनदशा के निरीक्षण से आप से आप होता हैं। (रामानुज - वेदार्थ संग्रह, पृ. १४५ - १४७)
'वडकलै' मत के आचार्य वेदान्तदेशिक कपिकिशोर के दृष्टान्त से प्रपत्ति के लिए भक्तों के कर्मानुष्ठान करने पर जोर देते हैं। जो कुछ भी हो, प्रपत्ति से भी भगवान् गम्य हैं, उन्हे पाने का दूसरा उपाय हैं ही नहीं। 'मामेकं शरणं व्रज' - यह गीता का उपदेश नितान्त माननीय हैं। अकिञ्चन, दीन भाव से भगवान् की शरण में प्राप्त होनेवाले भक्त के समस्त दुःख भगवदनुग्रह से छिन्न-भिन्न हो जाते हैं ।
प्रपत्ति के वशीभूत भगवान् जीव को पूर्णज्ञान की प्राप्ति करा देते हैं, जिसका फल ईश्वर का अपरोक्षज्ञान होता हैं, मुक्ति के लिए ईश्वर का साक्षादनुभव ही अन्तिम साधन हैं, परन्तु उस अवस्था - तक समस्त वर्णाश्रमविहित कर्मो का सम्पादन होना ही चाहिये। अद्वैतियों के कल्पनानुसार कर्म का संन्यास न्याय्य नहीं हैं। अविद्या (कर्म) के द्वारा मृत्यु को दूर कर विद्या (भक्तिरूपापन्न ध्यान) के द्वारा अमृत पाने का सिद्धान्त ईशोपनिषद् (श्लो० ११) में वर्णित हैं।
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