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षड्दर्शन समुच्चय भाग -१, परिशिष्ट-१, वेदांतदर्शन
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दृष्टिसृष्टिवाद :- आचार्य श्रीनिश्चछलदास ने श्रीप्रकाशानन्द को दृष्टिसृष्टिवाद का प्रधानाचार्य कहा हैं ।(२९३) श्रीअप्ययदीक्षित सिद्धान्तलेशसंग्रह में दृष्टिसृष्टिवाद का वर्णन इस प्रकार करते हैं कि- जीव न तो प्रतिबिम्ब हैं और न महाकाश से अवच्छिन्न मठाकाशवत् हैं। जिस प्रकार, कुन्तिपुत्र कर्ण अपने आपको राधापुत्र समझता हैं क्योंकि उसे कुन्ति के पुत्र होने का ज्ञान नहीं हैं। उसी प्रकार अविद्या के कारण ब्रह्म ही जीवभाव को प्राप्त होता हैं, इस मिथ्यादृष्टि के कारण, यह सृष्टि सत्य प्रतीत होने लगती हैं । (२९४) श्रीशंकराचार्य ने भी अविद्या के कारण, ब्रह्म का संसारीत्व भाव माना हैं और उदाहरण देकर स्पष्ट किया हैं कि जिस प्रकार कुन्तीपुत्र कर्ण में राधा के पुत्रत्व की प्रतीति होती हैं उसी प्रकार अविकारी ब्रह्म में जीवत्व का विकार देखा जाता हैं। जैसे कर्ण राधापुत्र नहीं हैं, अतः राधापुत्रत्व की प्रतीति भ्रम से अतिरिक्त ओर कुछ भी नहीं हैं। उसी प्रकार जीव की प्रतीति भ्रम से अतिरिक्त ओर कुछ भी नहीं हैं । (२९५) आचार्य श्रीसुरेश्वराचार्य का यह उद्धरण -"जैसे व्याधकुल संवर्धित राजकुमार अपनी राजकुमारता को जानकर व्याधभाव से निवृत्त हो जाता हैं । उसी प्रकार प्रमाता की "तत्त्वमसि" महावाक्योत्थित ज्ञान से, अज्ञानता की निवृत्ति हो जाती हैं। (२९६) यहद्धरण दृष्टिसृष्टिवाद की प्रसवभूमि हैं, जिसमें ब्रह्म, अविद्या के कारण जीवभाव को प्राप्त करता हैं, और पुनः ब्रह्मज्ञान से ब्रह्ममय हो जाता हैं। इस वाद में अज्ञान का प्रभव विस्तार, प्रभाव तथा कार्यो का बडी सहजता से बोध कराया गया हैं।
अज्ञान को जीवाश्रित मानने पर जो जागतिक प्रपञ्च तथा उसके कार्य की सृष्टि होती हैं, उसको दृष्टिसृष्टिवाद कहते हैं । २९७) जीव ही जगत का कर्ता हैं। दृष्टिसृष्टिवाद के अनुसार ब्रह्म में जब मायाशक्ति सक्रिय हो जाती हैं तब वह अव्यक्त तत्त्व श्रम और तप के योग से व्यक्त रुप धारण करता हैं। और पुर, पुरुष, जीव एवं जगत् की सृष्टि करता हैं सद्यः सृष्टि ही दृष्टिसृष्टि को उत्पन्न करती हैं। जैसे स्वप्न में जब हाथी, घोडा आदियों को देखा जाता हैं, तब द्रष्टा को स्वप्नगत दृश्यों की अभिव्यक्ति मात्र होती हैं। इससे पूर्व वहाँ हाथी घोडा इत्यादि नही थे और न स्वप्नो के अन्दर उन पदार्थो की स्थितिसम्भव हो सकती हैं। वहाँ तो स्वप्न के कारण, उन पदार्थो की सृष्टि होती हैं । (२९८) जिस प्रकार न्यायदर्शन में दो पदार्थो में रहनेवाला द्वित्व, देखनेवालो की अपेक्षा द्रष्टि से उत्पन्न होता हैं और अपेक्षाबुद्धि की समाप्ति के बाद द्वित्व भी समाप्त हो जाता हैं। जैसे द्वित्वबुद्धि की समाप्ति हो जाने पर उससे पूर्व एक घट की स्थितिकाल में अथवा घटान्तर की बहुकाल तक स्थिति रहने पर भी, द्वित्व का पुनः बोध नहीं होता। वैसे ही जीवाश्रित अविद्या से निर्मित प्रातिभासिक रजत, देखनेवालो को तब तक रजत दृष्टिगत होता रहता हैं, जब तक उसकी उत्पत्ति होती हैं। प्रातिभासिक रजत की प्रतीति न तो उससे पहले थी और न बाद में रहती हैं, जागतिक प्रपंचो की स्थिति तद्वत् न पूर्व में थी और न प्रलय के बाद रहेगी। व्यावहारिक वस्तु ज्ञात हो या अज्ञात पर क्रियाकारको पर प्रभाव डालने में समर्थ रहती हैं। जैसे अग्नि ज्ञात हो या अज्ञात, हाथ पडने पर वह जलाती ही हैं। प्रातिभासिक वस्तु कभी भी अज्ञात दशा में कार्यो की उत्पत्ति करने में सफल नहीं रहती हैं। इसका कारण
ज्ञात वस्तु स्वतः अस्तित्व हीन रहती हैं। अतः क्रियाकारकों पर प्रभाव डालने में समर्थ नहीं होती। अज्ञान काल में ही वस्तु का मूलतत्त्व से पृथक् अस्तित्व होना, दृष्टिसृष्टिवाद का मूलसिद्धान्त हैं । (२९९) ।
(२९३) वृत्तिप्रभाकर, पृ.३६१-६३ (२९४) न प्रतिबिम्ब:नाप्यवच्छिन्नो जीवः । किन्तु कौन्तेयस्य राधेयत्ववदधिकृतस्य ब्रह्मण एव अविद्यया जीवभावः । सि.ले.सं.प्र.११९, (२९५) Sankara's works, vol. vill, pp. 259-60 (२९६) सम्बन्धवार्तिक-२२३ (२९७) डॉ.महाप्रभुलालगोस्वामी-पुष्पलता हिन्दी भाष्य, भामती, पृ.२० (२९८) तुलना करें -यथा स्वप्ने एक एव स्वप्नदृक् परमार्थसत्यः अन्ये तद् भ्रमकल्पिताः सर्वे एवं जागरेऽपि एक एव परमार्थसत्यः ।-वे.सि.मु.का.प्र.९. (२९९) डॉ. महाप्रभुलाल गोस्वामी-पुष्पलता, भामती-अध्यासभाष्य-१, पृ.सं.२०.
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