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________________ षड्दर्शन समुच्चय, भाग-१, भूमिका बौद्धदर्शन में साधना के तीन साधन हैं । (१) शील, (२) समाधि तथा (३) प्रज्ञा । सर्व सात्त्विक कर्मों का अन्तर्भाव शील में होता है । बौद्धदर्शन के साधक, भिक्षु और गृहस्थ ऐसे दो प्रकार के होते है । अहिंसा, अस्तेय, सत्यभाषण, ब्रह्मचर्य और नशा न करना - ये पाँच सामान्य शील हैं । दोनों प्रकार के साधको को इस शील का यथार्थ सेवन करना होता है । भिक्षु को अन्य पाँच शील हैं । अपराह्न भोजन, मालाधारण, संगीत, सुवर्ण-रजत और महार्घ शय्या - इन पाँचो का त्याग करना होता हैं ।(48) समाधि से तीन प्रकार की विद्यायें उत्पन्न होती हैं । (१) पूर्व जन्म की स्मृति, (२) जीव की उत्पत्ति और विनाश का ज्ञान और (३) चित्त के बाधक विषयो की जानकारी ।(49) प्रज्ञा तीन प्रकार की है । (१) श्रुतमयी (आप्त प्रमाण जन्य निश्चय) (२) चिन्तामयी (युक्ति से उत्पन्न निश्चय) और (३) भावनामयी (समाधिजन्य निश्चय) । शील संपन्न श्रुति-चिंता-प्रज्ञा से युक्त पुरुष भावना (ध्यान) का अधिकारी होता है । प्रज्ञा के अनुष्ठान से ज्ञानदर्शन, मनोमय शरीर का निर्माण, ऋद्धियाँ, दिव्यश्रोत्र, परचित्त ज्ञान, पूर्वजन्म स्मरण, दिव्यचक्षु की उपलब्धि होती है और उसके बाद दुःखक्षय का ज्ञान होता हैं । चित्त कामाश्रव (भोग भुगतने की इच्छा), भवाश्रव (जन्म लेने की इच्छा) और अविद्याश्रव (अज्ञानमल) से सदा के लिए मुक्त हो जाता है और साधक निर्वाण को प्राप्त करता हैं । बौद्धदर्शन के दार्शनिक सिद्धांत : बौद्धदर्शन के मुख्य दार्शनिक सिद्धांत इस प्रकार से हैं - (१) नैरात्म्यवाद - अनात्मवाद (संघातवाद), (२) क्षणिकवाद (संतानवाद), (३) प्रतीत्यसमुत्पादवाद, (४) अनीश्वरवाद । अब क्रमशः बौद्धदर्शन के सिद्धांतो की विचारणा करेंगे । (१) नैरात्म्यवाद (संघातवाद) : आत्मा की कोई स्वतंत्र सत्ता नहीं हैं । आत्मा मानसिक प्रवृत्तियों के पुंज मात्र (संघातमात्र) हैं । मानसिक प्रवृत्तियों के समूह से भिन्न आत्मा की पृथक् सत्ता नहीं हैं । विशेष स्पष्टता करते हुए बताते हैं कि, आत्मा नाम - रुपात्मक हैं । इन्द्रियो के द्वारा अनुभव करने के लिए जो अपने स्वरूप का निरुपण करते है, उस पदार्थो को संज्ञा कहा जाता है । वह वस्तु, कि जिस में भारीपन हो और जो स्थान रोकती हो उसे रुप कहा जाता हैं । पृथ्वी आदि चार भूत और तद्जन्य शरीर "रूप" है । जिसमें भारीपन नहीं और जो स्थान रोकता नहीं है उसे 'नाम' कहा जाता हैं अर्थात् मन और मानसिक प्रवृत्तियाँ... इसलिए आत्मा, वह शरीर तथा मन, शारीरिक कार्य और मानसिक प्रवृत्तियों का एक समुच्चय मात्र है । (रुप एक ही प्रकार का हैं । नाम चार प्रकार का हैं। वेदना, संज्ञा, संस्कार तथा विज्ञान) । सारांश में आत्मा रुप, वेदना, संज्ञा, संस्कार और विज्ञान - इन पाँच स्कंधो का पुंज (संघात) मात्र हैं। मिलिन्द प्रश्न (पृ. ३०-३३) नाम के ग्रंथ में श्री नागसेन ने यवनाधिपति मिलिन्द के आगे बौद्ध संमत आत्मा का स्वरूप एक उपमा देकर बताया था । नागसेन ने राजा को पूछा कि, आप जिस रथ में यहाँ आश्रम तक आये हो, उस रथ का 'इदमित्थं' वर्णन क्या आप कर सकते हो ? क्या दंड रथ हैं या अश्व रथ हैं ? क्या रस्सी रथ हैं या लगाम रथ है ? क्या चक्र रथ हैं या सारथी रथ हैं ? श्री नागसेन यहाँ स्पष्टता करते हैं कि, आप को अगत्या 48. दीर्घणिकाय के ३१ वें सुत्त 'सिंगालोवाद सुत्त' में गृहस्थाचार का विस्तृत-प्रामाणिक वर्णन मिलता है । त्रिपिटक में यानद्वय का विधान है - समययान और विपस्सनायान । निर्वाण के लिए समाधि के स्वतंत्र साधनरूप से अभ्यासी साधक 'समययानी कहलाता है । समाधि के अभ्यास करने का अन्तिम फल चित्तवृत्तियों का प्रत्यक्षानुभव है, जिसे प्राप्त करनेवाले व्यक्ति की संज्ञा 'कामसक्खी ' है (भारतीय दर्शन पृ. १२४) 49. सामञ्जसफलसुत्त (दी.नि, पृ. २८-२९) में चार प्रकार की समाधि का दृष्टान्त सहित वर्णन दिया गया है । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004073
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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