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________________ २८४ षड्दर्शन समुञ्चय भाग - १, सांख्यदर्शन का विशेषार्थ - अतीन्द्रियपदार्थो का ज्ञान ‘सामान्यतोदृष्ट' अनुमान से होता है। इससे भी जो सिद्ध न हो सके वैसे परोक्ष पदार्थ का ज्ञान आप्तशास्त्र से होता है। (कारिका - ६) इन्द्रिय से गम्य न हो, वैसे प्रधान और पुरुष इत्यादिकी प्रतीति 'सामान्यतोदृष्ट' अनुमान से होती है। अतीन्द्रिय पदार्थो का प्रत्यक्ष न होने का कारण बताते हुए कारिकाकार कहते है कि, अतिदूरात् सामीप्यात् इन्द्रियघातान्मनोऽनवस्थानात् । सौम्याद् व्यवधानात् अभिभवात् समानाभिहाराच्च ॥७॥ - बहोत (अति) दूर होने से, बहोत पास होने से, इन्द्रिय में हानि होने से, मन स्थिर न रहने से, वस्तु (अति) सूक्ष्म होने से, कोई आवरण (बीच में) आने से, (कोई बलवान कारण की वजह से) अभिभूत होने से या समान वस्तु में मिल जाने से पदार्थ की प्रतीति नहीं होती है। (कारिका - ७) कहने का मतलब यह है कि केवल इन्द्रिय से ही जिसका ग्रहण हो सके, वही पदार्थ अस्तित्व रखते है. ऐसा नहीं है। बहोत बार एक या दूसरे कारण से इन्द्रियां पदार्थो का ग्रहण नहीं कर सकती है। इस कारिका में ऐसे आठ कारणो को उपर अनुसार बताया गया है। __ आचार्यो की मान्यता : इस आठ कारणो के उपरांत श्री वाचस्पति मिश्र नौंवा कारण भी बढाते है। पदार्थ में अप्रकटरुप रही हुई उसकी भावि अवस्था की उपलब्धि नहीं होती है। जैसे कि, दूध में दहीं सूक्ष्मरुप में रहा हुआ है ही। परन्तु वह दिखाई नहीं देता। माठरवृत्ति दूसरे चार कारणो का बढावा करती है। जबकि, श्री चन्द्रिका इन कारणो को और भी बढाया जा सकता है, ऐसा सूचन करती है। श्री पतंजली के भाष्य में छ: कारण बताये गये है। उसका उपर के आठ कारणो के साथ बहोत साम्य है। श्री सोवनी मानते है कि “इन्द्रियघातात्" और "मनोऽनवस्थानात्" ये दो अलग बताने की आवश्यकता नहीं है। क्योंकि मन भी एक इन्द्रिय ही है। श्री जयमंगला का इन आठ कारणो को निम्नोक्त रीति से चार विभागो में बांटते है। (१) देशदोष - अति दूर, अति पास (नजदीक), (२) इन्द्रियदोष - इन्द्रियघात, मनका अनवस्थान, (३) विषयदोष - सौम्य, (सूक्ष्मता) (४) अर्थान्तरदोष - व्यवधान, अभिभव, समानाभिहार । सांख्यशास्त्रोक्त 'प्रकृति' पदार्थ की अप्रत्यक्षता में कारण बताते हुए कारिकाकार कहते है कि, सौम्यात्तदनुपलब्धिर्नाऽभावात् कार्यतस्तदुपलब्धेः। महादादि तच्च कार्यं प्रकृतिसरुपं विरुपं च ॥८॥ - उसकी (मूलप्रकृतिकी) उपलब्धि उसकी सूक्ष्मता के कारण नहीं होती है । नहि कि उसके अभाव से, क्योंकि उसके कार्य से उसकी उपलब्धि होती है। महद् इत्यादि (तत्त्व) उनका कार्य है और वे प्रकृति के जैसा भी है और उससे अलग भी है। (कारिका - ८) सातवी कारिका में प्रकृति और पुरुष इन्द्रियगोचर नहीं है वह बताया। इस कारिका में अतीन्द्रिय होने पर भी अस्तित्व है, ऐसा बताते है। वह प्रकृति (मूल) सूक्ष्म होने के कारण इन्द्रियगोचर बनती नहीं है। उपर की कारिका में आये हुए सूक्ष्म से यहाँ अलग है। सूक्ष्म, व्यक्त और अव्यक्त निश्चित अर्थ में इस्तेमाल हुआ है। साम्यावस्था में मूलप्रकृति अव्यक्त होती है। इसलिए हमारी दृष्टिमर्यादा में आती नहीं है। परन्तु सत्त्वगुण, रजोगुण और तमोगुण, वे तीनो के संघर्ष से जो अनेकपदार्थ उत्पन्न होते है। वे हमारी इन्द्रिय के विषय होते है, यानी व्यक्त है । वह आकृति से व्यक्त होते है। रुप से या गंध से अथवा कोई प्रत्यक्ष गुण से व्यक्त होते है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004073
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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