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षड्दर्शन समुच्चय भाग - १, सांख्यदर्शन का विशेषार्थ
समाधान: सही में देखे तो भोग और अपवर्ग बुद्धि से ही किये हुए है। तथापि उपचार से पुरुषनिष्ठ है। ऐसा कहा जाता है। जैसे लश्कर से किया गया हुआ जय-पराजय, लश्कर में ही रहा हुआ है फिर भी लश्कर के स्वामी को लश्कर के साथ अभेदरुप में गिनकर, लोग उस जय-पराजय का राजा में उपचार करते है। इस तरह से भोग और अपवर्ग के लिए समजना ।
शंका : प्रयोजन को लेकर यदि सत्त्वादि परिणाम प्राप्त करते है, तो प्रकृति इस विषय में स्वतंत्र नहीं कही जायेगी न ?
समाधान : धर्मादि निमित्त प्रधानादि प्रकृति के प्रवर्तक हेतु नहीं है । परन्तु ये निमित्त तो केवल किसान की तरह प्रतिबंध को दूर करते है ।
प्रधान, महत्, अहंकारादि उपादानकारणरुप प्रकृति की प्रवृत्ति तो अपने - अपने स्वभाव से ही होती है । ये प्रवृत्ति को धर्मादि निमित्त कराते नहीं है। वह प्रवृत्ति का प्रतिक्षण निरंतर होना, यह तो प्रकृति का स्वभाव है। फिर भी इस स्वभाव को आच्छादन करके रखनेवाला प्रतिबंधकरुप अधर्मादि प्राप्त होता है । तो उसकी निवृत्ति केवल धर्मादि करते है । यह निवृत्ति हुई, इससे वे प्रकृतियां अपने अपने स्वभाव से अपने आप ही प्रवृत्ति करती है। जैसे कि, किसान जब एक खड्डे में से विविध पौधो की जमीन तक पानी ले जाना होता है। तब किसान नीची नीची पाल बांधता है। इस स्थान पे किसान जल का प्रवर्तक हेतु नहीं है। जल का ऐसा स्वभाव है कि, वह हंमेशां नीचे के प्रदेश में जाता है । वह किसान प्रतिबंध दूर कर देता है। पानी अपना काम करता है ।
उसी प्रकार से प्रकृति का स्वभाव अपने अपने विकाररुप में परिणाम प्राप्त करने का है। वह स्वभाव अधर्मादि निमित्त से आच्छादित हुए है। धर्मादि निमित्त उस आच्छादन को दूर करते है। उसके बाद प्रकृतियां अपने स्वभाव के अनुसार से परिणाम को प्राप्त करती है। उसी अनुसार से पुरुषार्थरुप निमित्त के लिए भी इस तरह से जानना । क्योंकि, जो पदार्थ स्वतंत्र है वह परतंत्र का प्रवर्तक बन सकता है। जो स्वयं परतंत्र है, वह अन्य का प्रवर्तक बनता नहीं है। जैसे कि, दंड - चक्रादि निमित्त, जो स्वयं परतंत्र है वह घट के प्रयोजक नहीं है। और ऐसा होने से ही दंड - चक्रादि का अभाव होता है। फिर भी योगीयों के संकल्प मात्र से घटकी उत्पत्ति होती है ।
उपरांत जो कार्य है वह कारण का प्रयोजक नहीं होता है। जैसे घट मृत्तिका (मिट्टी) के कार्यरुप होने से मृत्तिका प्रयोजक नहीं है। इस नियमानुसार धर्माधर्म और पुरुषार्थ ये दोनो प्रकृति के कार्यरुप है और इसलिए प्रकृति के अधीन होने से परतंत्र है ।
अब जो लोग सेश्वरवादि है, वे कहते है कि ईश्वर प्रकृति की प्रवृत्तिविरोधी जो साम्यावस्था है, उसका संकल्प
भंग करते है और प्रकृति अपने स्वभाव से ही सर्ग के आरंभ में अपने आप ही परिणाम को प्राप्त करती हुई चली जाती है। कालादि पदार्थ धर्माधर्म को उद्भूत करते है। तथा उसके द्वारा धर्माधर्मादिरुप प्रतिबंध की निवृत्ति करते है। इसलिए प्रकृतियां अपने आप ही परिणाम को प्राप्त करती है। इसलिए सर्व निमित्त, प्रकृति के प्रयोजक हेतु नहि होने से प्रकृति स्वतंत्र है ।
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प्रकृति की अवस्थाविशेष: विशेष, अविशेष, लिंग मात्र और अलिंग, ये चार सत्त्वादि गुणत्रयरुप प्रकृति की अवस्थाविशेष है।
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• विशेष : केवल विकारपदार्थ १६ है । पाँच महाभूत, पाँच ज्ञानेन्द्रिय, पाँच कर्मेन्द्रिय तथा ज्ञानेन्द्रिय और कर्मेन्द्रिय यह उभयरुप मन, ये सोलह केवल विकार होने से विशेष है ।
यहाँ पृथ्वी गंधतन्मात्रारुप अविशेष का, अप् रसतन्मात्रारुप अविशेषका, तेज रुपतन्मात्रारुप अविशेषका, वायु स्पर्शतन्मात्रारुप अविशेष का तथा आकाश शब्दतन्मात्रारुप अविशेष का विकार है ।
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