________________
षड्दर्शन समुञ्चय भाग - १, श्लोक - ३१, नैयायिक दर्शन
२११
हेत्वाभास है, इसलिए असिद्ध हेतु से शब्द में अनित्यत्व की सिद्धि नहीं होगी।
(१४) (असंशयसमा जाति : पहले बताई गई साधर्म्यसमा और वैधर्म्यसमा जाति को संशय के द्वारा उपसंहार किया जाये तो, उसे संशयसमा जाति कहा जाता है। जैसे कि, क्या घट के साधर्म्य से शब्द कृतक होने से अनित्य है या घट के वैधर्म्य ऐसे आकाश के साधर्म्य से शब्द अमूर्त होने से नित्य है? इस तरह से साधर्म्यसमा और वैधर्म्यसमा जाति संशय के द्वारा उपसंहार पाई हुई है। इसलिए उसे संशयसमा जाति कहा जाता है। __(१५) (प्रकरणसमा जाति : द्वितीयपक्ष के उत्थापन की बुद्धि से प्रयोजित वही साधर्म्यसमा और वैधर्म्यसमा जाति को प्रकरणसमा जाति कहा जाता है। (कहने का मतलब यह है कि, साध्य और असाध्य दोनो के साथ साधर्म्य होने से पक्ष और प्रतिपक्ष चलते रहते होने से प्रकरणसमा जाति बनती है। अर्थात् दोनो के हेतु का, हेतु द्वारा साध्य का निश्चय नहीं हो सकता होने के कारण प्रकरण चलता रहता है।)
जैसे कि, वादि द्वारा "अनित्य शब्दः कृतकत्वात्, घटवत्।" यह प्रयोग करने पर प्रतिवादि "नित्यः शब्दः श्रावणत्वात्, शब्दत्ववत्।" इस प्रयोग के द्वारा शब्द में नित्यत्व सिद्ध करने के लिए प्रयत्न करता है। परन्तु शब्द कृतकत्वेन अनित्य है या शब्द श्रावणत्वेन नित्य है? वह तय होता नहीं है, इसलिए प्रकरण चलता ही रहता है। इसे प्रकरणसमा जाति कहा जाता है। ___ कहने का मतलब यह है कि वादि ने शब्द में अनित्यत्व सिद्ध करने के लिए कृतकत्वरुप हेतु देने के बाद प्रतिवादि (जातिवादि) यदि कहे कि, शब्द में तो अनित्यपदार्थ का (घटका) जैसे साधर्म्य है, वैसे नित्यपदार्थ (शब्दत्व) का भी साधर्म्य है। जैसे कि "शब्दो नित्यः श्रावणत्वात्" शब्द में श्रावणत्वश्रोत्रग्राह्यत्व है। वैसे ही शब्दत्व में भी श्रावणत्व = श्रोत्रग्राह्यत्व है। शब्दत्व नित्यपदार्थ है। इसलिए शब्द जैसे अनित्य घट के साथ साधर्म्य रखता है। वैसे नित्य शब्दत्व के साथ भी साधर्म्य रखता है, इसलिए श्रावणत्वहेतु से शब्द को नित्य मानना या कृतकत्वहेतु से शब्द को अनित्य मानना, वह निश्चय नहीं हो सकता है। इसलिए प्रकरण चलता रहता है। इसलिए प्रकरणसमा जाति से कृतकत्वहेतु असिद्ध होता है।
यहाँ जाति के उद्भावन (उद्भव) के प्रकार के भेदमात्र से जाति में अनेकत्व है। अर्थात् जाति के अनेक प्रकार दोष के उद्भावन (उद्भव) के प्रकार की भिन्नता के कारण है। (परन्तु तात्त्विक जाति एक ही है)
त्रैकाल्यानुपपत्त्या हेतोः प्रत्यवस्थानं हेतुसमा जातिः । हेतुः साधनं तत्साध्यात्पूर्वं पश्चात्सह वा भवेत् । यदि पूर्वमसति साध्ये तत्कस्य साधनम् । अथ पश्चात्साधनं तर्हि पूर्वं साध्यं तस्मिंश्च पूर्वसिद्धे किं साधनेन । अथ युगपत्साध्यसाधने तर्हि तयोः सव्येतरगोविषाणयोरिव साध्यसाधनभाव एव न भवेदिति १६ । अर्थापत्त्या प्रत्यवस्थानमर्थापत्तिसमा जातिः । यद्यनित्यसाधर्म्यात्कृतकत्वादनित्यः
(अ) साधर्म्यवैधय॑समा जातिर्या पूर्वगुदाहृता सेव संशयेन उपक्रियमाणा संशयसमा जातिभवति ।। न्याक० . पृ. १९ ।। (4)
द्वितीयपक्षोत्थापनबुढ्या प्रयुज्यमाना सैव साधर्म्यसमा वैधय॑समा जातिः प्रकरणसमा भवति ।। न्यायक० पृ १९ ।।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org