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________________ १६० षड्दर्शन समुञ्चय भाग - १, श्लोक - १७, १८, १९, नैयायिक दर्शन समाधान : ऐसा मत कहना। क्योंकि यहाँ विशिष्ट उन्नत्वादि धर्म ही (वृष्टिके) गमक के रुप में विवक्षित शंका : उन्नत्वादि का विशिष्टत्व असर्वज्ञ के द्वारा निश्चित करने के लिए संभव नहीं है। समाधान : ऐसा कहना योग्य नहीं है। क्योंकि यदि ऐसा मानोंगे तो (= कारण का विशिष्टत्व असर्वज्ञ के द्वारा निश्चित करने के लिए संभव नहीं है ऐसा मानोंगे तो) सब अनुमानो के उच्छेद की आपत्ति आयेगी। जैसे कि (वह इस अनुसार) "मशकादि से व्यावृत्त धूमादि का भी स्वसाध्य के साथ अव्यभिचारित्व असर्वज्ञ के द्वारा निश्चित करने के लिए संभव नहीं है।" अर्थात् मच्छरादि से धूम का भेद जाना भी लिया जाये, तो भी वह धूम सदा स्वसाध्य का अव्यभिचारी होगा, ऐसा जानना असर्वज्ञो के सामर्थ्य की बात नहीं है, ऐसा भी कहना संभव नहीं है। इसलिए धूम से अग्नि का अनुमान करना मुश्किल हो जायेगा। इसलिए सब अनुमानो का उच्छेद होने की आपत्ति आयेगी। अनुमिति के प्रति व्याप्तिज्ञान करण है। और परामर्श व्यापार है। अनुमिति फल है। __ अनुमान ज्ञान के पहले दो प्रत्यक्षज्ञान होना चाहिए। एक हेतु का प्रत्यक्षज्ञान और समान्तर में हेतु और साध्य के संबंध का प्रत्यक्षज्ञान । जैसे कि, धूम हेतु से पर्वत आदि प्रदेश में अग्नि का अनुमान करना है। तो पर्वत तथा धूम और अग्नि के संबंध का प्रत्यक्षज्ञान महानस में हुआ होना चाहिए। धूम को देखने के बाद धूम और अग्नि के संबंध के प्रत्यक्षज्ञान का स्मरण होगा, इस से अग्नि का अनुमान भी आसानी से हो सकेगा। आदिमें धूम का प्रत्यक्षज्ञान होना चाहिए । “जहाँ जहाँ धूम है, वहाँ वहाँ अग्नि भी है।" ऐसा व्याप्तिज्ञान जो इन्सान को नहीं होगा, उसको धूम देखने पर भी अग्नि का अनुमान नहीं हो सकेगा। न्यायबोधिनी में व्यापार का लक्षण इस अनुसार है__ "तज्जन्यत्वे सति तज्जन्यजनकत्वात् व्यापारः। जो कारण से उत्पन्न होता है और कारण से उत्पन्न होनेवाले फल का भी जो जनक हो, उसे व्यापार कहा जाता है। उदा. दंड से चक्र में भ्रमण उत्पन्न होता है और भ्रमण दंड से उत्पन्न होनेवाला घटका भी जनक है। इसलिए दंड से उत्पन्न होनेवाला घट प्रति चक्रभ्रमण वह व्यापार है। ___ अनुमितिज्ञान में भी व्याप्तिज्ञान से अनुमिति उत्पन्न होती है और दो ज्ञान के बिच "परामर्श" ज्ञान भी अवश्य होता है। परामर्श का आकार इस अनुसार है - "व्याप्तिविशिष्ट पक्षधर्माताज्ञानं परामर्शः" धूमादि हेतु में व्याप्ति और हेतु पर्वतादि पक्ष में है, ऐसा जो ज्ञान है, उसे परामर्श कहा जाता है। अर्थात् "वह्निव्याप्यधूमवानयं पर्वत" - इत्याकारक ज्ञान परामर्श है। यह ज्ञान होने से पहले दो ज्ञान होने चाहिए। (१) धूमादि हेतु में व्याप्ति “यत्र यत्र धूम, तत्र तत्र वह्नि" ऐसी व्याप्ति का ज्ञान । तथा (२) हेतु धूम पर्वतादि पक्षमें है अर्थात् “पर्वतो धूमवान्" मतलब यह है कि (१) पर्वतो धूमवान् और (२) धूमो वह्निव्याप्य (व्याप्ति का स्मरण) ये दो लिंगपरामर्श होने के बाद "वह्निव्याप्यधूमवानयं पर्वत्" ऐसा परामर्श होता है और इस परामर्श से “पर्वतो वह्निमान्" इत्याकारक ज्ञान होता है। उसको अनुमिति कहा जाता है। अनुमान के दो प्रकार : (१) स्वार्थानुमान, (२) परार्थानुमान। (१) स्वार्थानुमान : स्वार्थं स्वानुमितिहेतुः स्वानुमिति (स्वसमवेत अनुमिति) के कारणभूत अनुमान को Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004073
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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