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________________ ११६ बौद्धदर्शन का विशेषार्थ प्राप्ति के बिना निर्वाण नहीं मिल सकता । इस सारगर्भित कथन का अर्थ यह है कि साधारण मानवों की बुद्धि व्यवहार में इतनी ज्यादा संलग्न है कि उनको परमार्थ का लौकिक वस्तुओ की दृष्टि से ही उपदेश दिया जा सकता है। जो संकेतो से उनको आजन्म परिचय है वही संकेतो की भाषा में परमार्थ को वे समज सकते है। इसलिए व्यवहार का सर्वथा उपयोग है। यही वस्तु का प्रतिपादन बौद्धाचार्य श्री चन्द्रकीति ने माध्यमिकावतार (६।८०)में किया है। "उपायभूतं व्यवहारसत्यमुपेयभूतं परमार्थसत्यम् । उपरांत, न च सुभूते संस्कृतव्यतिरेकेण असंस्कृतं शक्यं प्रज्ञापयितुम् अर्थात् संस्कृत (व्यवहारके) बिना असंस्कृत (परमार्थ) का प्रज्ञापन संभव नहीं है। शून्यवाद : माध्यमिक लोग परमार्थसत्य को शून्य के नाम से पहचानते है। इसलिए ये आचार्यों का मत शून्यवाद के नाम से प्रसिद्ध है । इस शून्यवाद के तात्त्विकस्वरुप का निरुपण करने में विद्वानो को अतिशयवैमत्य है । हीनयानी आचार्य (माध्यमिक महायानि कहा जाता है) तथा दूसरे कुछ विद्वानोने शून्य शब्द का अर्थ सर्वत्र सत्ता" का निषेध या "अभाव" ही किया है। उसका कारण यह है कि लोकव्यवहार में यह शब्द का प्रसिद्ध अर्थ वह है। परन्तु माध्यमिक आचार्यो के ग्रंथो के अभिप्राय अनुसार शून्य शब्द का अर्थ "नास्ति" तथा "अभाव" नहीं है, कोई भी पदार्थ के स्वरुपनिर्णय में चार ही कक्षाओ का प्रयोग प्रतीत होता है । "अस्ति" विद्यमान है), "नास्ति' (विद्यमान नहीं है), तदुभयं (अस्ति और नास्ति एकसाथ), नोभयं (नास्ति और अस्ति दोनो कल्पना का निषेध ।) इस कोटि (कक्षाओका) संबंध सांसारिक पदार्थ से है। परंतु परमार्थ मनो-वाणी से अगोचर होने के कारण नितरां अनिर्वाच्य है। सविशेष वस्तु का विवेचन होता है। निविशेष वस्तु का कभी भी विवेचन नहीं होता । इस कारण से अनिर्वचनीयता की सूचना देने के लिए 'परमतत्त्व' के लिये शून्य का प्रयोग किया है । परमार्थ चतुष्कोटिविनिर्मुक्त है । माध्यमिक कारिका में कहा है किन सन् नासन् न सदसन्न चाप्यनुभयात्मकम् । चतुष्कोटिविनिर्मुक्तं तत्त्वं माध्यमिका विदुः ॥१७॥ शून्य का प्रयोग एक विशेष सिद्धांत का सूचक है । हीनयानो (बुद्धके) मध्यममार्ग को ये चार के विषय में अंगीकार करते है। परन्तु माध्यमिक लोग तत्त्वमीमांसा के विषय में भी मध्यममार्ग को अपनाते है । उनके मतानुसार वस्तु न एकांतिक सत् है या न एकान्तिक असत् है। प्रत्युत उस वस्तु का स्वरुप ये दोनो के मध्यबिंदु पर ही निर्णीत हो सकता है। जो शून्यरुप से होता है। समाधिराजसूत्र में कहा है कि अस्तीति नास्तीति उभेऽपि अन्ता शुद्धी अशुद्धीति उभेऽपि अन्ता । तस्मादुभे अन्त विवर्जयित्वा मध्ये हि स्थानं प्रकरोति पण्डितः ॥ शून्य "अभाव" नहीं है। क्योंकि अभाव की कल्पना सापेक्षकल्पना है। अभाव को भाव की अपेक्षा है। परंतु शून्य परमार्थ का सूचक होने से स्वयं निरपेक्ष है। इसलिये निरपेक्ष होने के कारण शून्य का अभाव नहीं माना जा सकता । यह आध्यात्मिक मध्यममार्ग का प्रतिष्ठापक होने से इस दर्शन का नाम माध्यमिक दिया गया है। यह शून्य ही सर्वश्रेष्ठ अपरोक्षतत्त्व है। इस तरह माध्यमिक आचार्य "शून्याद्वैतवाद" के समर्थक है। यह समस्त नानात्मक प्रपंच (विभिन्न प्रकार का जगत व्यवहार ) इसी "शून्य" का ही विवर्त है। शून्यता का उपयोग : जगत के समस्त पदार्थो के पीछे कोई नित्यवस्तु (जैसेकि, आत्मा, द्रव्य) विद्यमान नहीं है। प्रत्युत वह निरालंबन तथा नि:स्वभाव है। यह ज्ञान, शून्यता का ज्ञान है। मानवजीवन में इस तथ्य का ज्ञान अत्यंत उपयोगी है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004073
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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