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षड्दर्शन समुञ्चय भाग - १, श्लोक - ११, बोद्धदर्शन
जलाशय में वह्नि का अनुमान करा देता । परन्तु इस तरह हेतु अनुमापक बनता नहीं है। इसलिये हेतु का विपक्षासत्त्व स्वरुप भी मानना चाहिए।
अथवा शब्दोऽनित्यः काकस्य कार्यात् ।शब्द अनित्य है क्योंकि कौआ काला है, यहाँ हेतु का पक्ष में अस्तित्व नहीं है। इसलिए पक्षधर्मत्व हेतु का स्वरुप नहीं है। इसलिये हेतु साध्य का गमक नहीं बनता।
शब्दोऽनित्यः श्रावणत्वात् । शब्द अनित्य है क्योंकि श्रोत्रेन्द्रिय से ग्राह्य है। यहाँ सपक्ष और विपक्ष दोनो का अभाव है। इसलिये सपक्षसत्त्व और विपक्षासत्त्व स्वरुप हेतु के दो स्वरुप नहीं है।
(१) शब्दोऽनित्यः प्रमेयत्वात् पटवत् । शब्द अनित्य है क्योंकि प्रमेय है। यहाँ प्रमेयत्व हेतु साध्यविपर्यय विपक्ष में भी रहता है। इसलिये विपक्षसत्त्व है, विपक्षासत्त्व हेतु का स्वरुप नहीं है।
(२) वज्रं लोहलेख्यं पार्थिवत्वात् द्रुमादिवत् । वज्र लोहे से कटाता है क्योंकि पार्थिव (पृथ्वी) है, जैसेकि वृक्षादि । यहाँ पार्थिवत्वहेतु साध्यविपर्यय विपक्ष में रहता होने से हेतु का विपक्षासत्त्व स्वरुप नहीं है।
(३) मण्डूकः सलोमाः उत्प्लुत्योत्प्लुत्यगमनात् हरिणवत् । यहां हेतु विपक्ष में रहता है । इसलिये हेतु का विपक्षासत्त्व स्वरुप नहीं है।
(४) हरिणो निर्लोमा, उत्प्लुत्योत्प्लुत्यगमनात्, मण्डूकवत् । यहाँ हेतु विपक्ष में रहता है। इसलिये हेतु का विपक्षासत्त्व स्वरुप नहीं है।
इस तरह उपरोक्त चार में हेतु विपक्ष में रहता होने से हेतु का विपक्षासत्त्व स्वरुप नहीं है। इसलिये वे हेतु साध्य के गमक नहीं बनते है।
इसलिये ये तीन रुप एकसाथ हेतु के होते है, तब ही वह हेतु स्वसाध्य का गमक होता है। एक या दो रुप हो तो स्वसाध्य का गमक नहीं होता है।
नन्वेतल्लक्षणा हेतवः कति भवन्तीति चेत् ? ननूक्तं पुरापि एतल्लक्षणा अनुपलब्धिस्वभावकार्याख्यास्त्रय:-27 एव हेतव इति । एषामुदाहरणानि प्रागेवोपदर्शितानि, तथापि पुनः स्वभावहेतुरुदाह्रियते -28, सर्वं क्षणिकमिति पक्षः, सत्त्वादिति हेतुः, अयं हेतुः सर्वस्मिन्वर्तत इति पक्षधर्मत्वम्, यत्सत्तत्क्षणिकं यथा विद्युदादीति सपक्षसत्त्वम् । यत्क्षणिकं न भवति, तत्सदपि न भवति, यथा खपुष्पम् । अत्र क्षणिकविपक्षे नित्ये क्रमयोगपद्याभ्यामर्थक्रियालक्षणस्य सत्त्वस्यानुपपत्तितो नित्यात्सत्त्वस्य व्यावृत्तिरिति विपक्षासत्त्वम्, सञ्च सर्वमित्युपनयः, सत्त्वात्सर्वं क्षणिकमिति निगमनम् । एवमन्यहेतुष्वपि ज्ञेयम् । यद्यपि व्याप्त्युपेतं पक्षधर्मतोपसंहाररूपं सौगतैरनुमानमाम्नायि, तथापि मन्दमतीन्व्युत्पादयितुं पञ्चावयवानुमानदर्शनमप्यदुष्टमिति । अयमत्र श्लोकद्वयस्य तात्पर्यार्थः, पक्षधर्मान्वयव्यतिरेकलक्षणरूपत्रयोपलक्षितानि त्रीण्यैव लिङ्गानि, अनुपलब्धिः, स्वभावः, कार्य, चेति ।
(B-27-28)- तु० पा० प्र० प० ।
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