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________________ षड्दर्शन समुञ्चय भाग - १, श्लोक - १०, बोद्धदर्शन जाये तो भी निर्विकल्पक दर्शन को अक्षणिकत्व अंश में प्रमाणभूत नहीं माना जा सकता, प्रत्युय विपरीत अध्यवसाय से युक्त होने के कारण वह अक्षणिक अंश में प्रमाण नहीं अप्रमाण ही है । तथा क्षणिक अंश में भी वह प्रमाण नहीं है। क्योंकि वह “यह क्षणिक है" ऐसा अनुकूल अध्यवसाय उत्पन्न कर सकता नहीं है। परन्तु (केवल वह) नील अंश में “यह नील है" ऐसा नीलरुपता स्वरुप अनुकूल विकल्प को उत्पन्न करने से प्रमाण बनता है। इसलिये ही अभ्रान्त निर्विकल्पक ज्ञान प्रत्यक्ष है, ऐसा कहा, वह युक्तियुक्त ही है। अत्र “अअभ्रान्तं' इति विशेषणग्रहणादनुमाने च तदग्रहणादनुमानं भ्रान्तमित्यावेदयति । तथाहिभ्रान्तमनुमानं, सामान्यप्रतिभासित्वात्, सामान्यस्य च बहिः स्वलक्षणे व्यतिरेकाव्यतिरेकविकल्पाभ्यामपाक्रियमाणतयाऽयोगात्, सामान्यस्य स्वलक्षणरूपतयानुमानेन विकल्पनात्:-16 । अतस्मिन्नस्वलक्षणे तद्ग्रहस्य स्वलक्षणतया परिच्छेदस्य भ्रान्तिलक्षणत्वात् । प्रामाण्यं पुनः प्रणालिकया बहिः स्वलक्षणबलायातत्वादनुमानस्य ।तथाहि-नार्थं विनातादात्म्यतदुत्पत्तिरूपसंबन्धप्रतिबद्धलिङ्गसद्भावो, न तद्विना तद्विषयं ज्ञानं, न तज्ज्ञानमन्तरेण प्रागवधारितसंबन्धस्मरणं, तदस्मरणे नानुमानमित्यर्थाव्यभिचारित्वाद्भान्तमपि प्रमाणमिति संगीर्यते । तदुक्तम्- अतस्मिंस्तद्ग्रहो भ्रान्तिरपि संधानतः प्रमा' [] इति । अमुमेवार्थं दृष्टान्तपूर्वकं (वि)निश्चये धर्मकीर्तिरकीर्तयत् । यथा -“मणिप्रदीपप्रभयोमणिबुद्ध्याभिधावतोः । मिथ्याज्ञानाविशेषेऽपि विशेषोऽर्थक्रियां प्रति ।। १ ।। यथा तथाऽयथार्थत्वेऽप्यनुमानं तदा तयोः । अर्थक्रियानुरोधेन प्रमाणत्वं व्यवस्थितम् ।। २ ।।” [प्र० वा० २/५७/५८] इति ।। टीकाका भावानुवाद : प्रत्यक्ष के लक्षण में "अभ्रान्तम्" विशेषण के ग्रहण से और अनुमान के लक्षण में उसका ग्रहण न होने से "अनुमान भ्रान्त" है, ऐसा सूचन होता है वह इस अनुसार है - अनुमान भ्रान्त है, क्योंकि, वह सामान्य पदार्थ को विषय बनाता है। सामान्य पदार्थ तो "उस स्वलक्षणरुप व्यक्तिओ से भिन्न है या अभिन्न है?" इत्यादि विकल्पो से खण्डित हो जाने के कारण सिद्ध नहीं होता। परन्तु अनुमान उस मिथ्या सामान्य को स्वलक्षणरुप से (कल्पना करके) ग्रहण करता है। अतस्मिन् -- अस्वलक्षण में तद् = स्वलक्षणरुप से ज्ञान करना उसे भ्रान्ति कहा जाता है। अर्थात् यदि स्वलक्षण नहीं है ऐसे सामान्य में स्वलक्षणरुप से परिच्छेद (अ) तथा अभ्रान्तग्रहणेनाप्यनुमाने निवर्तिते कल्पनापोढग्रहणं विप्रतिपत्तिनिराकरणार्थम् । भ्रान्तं हि अनुमान स्वप्रतिभासेऽनर्थेऽर्थाध्यवसायेन प्रवृत्तत्वात् । प्रत्यक्षं तु ग्राह्ये रुपे न विपर्यस्तम् ।” [न्यायबि० टी० पृ-४७] (ब) “भान्तिरपि च वस्तुसंबन्धेन प्रमाणमेव" - ।। प्र० वार्तिकाल० ३/१७५ । “तदाह न्यायवादी- भ्रान्तिरपि संबन्धतः प्रभा ।।" न्यायबि० धर्मोपृ. ७८ । (B-16)- तु० पा० प्र० प० । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004073
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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