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षड्दर्शन समुञ्चय भाग - १, श्लोक - ७, बोद्धदर्शन
है और यदि.... "द्वितीयादि क्षणो में होनेवाले कार्यो को प्रथम क्षण में करने का स्वभाव नित्यपदार्थ का नहीं है।" ऐसा मानोंगें तो उसका अनित्यत्व का प्रसंग स्पष्ट ही है।
इसलिये इस अनुसार नित्यपदार्थ की क्रम से या युगपद् से अर्थक्रिया का अभाव होने से स्वकारणो से अविनश्वर स्वभाववाले नित्यपदार्थ की उत्पत्ति (मान्य) नहीं बनती है। अर्थात् नित्यपदार्थ में क्रम से या युगपद् अर्थक्रिया नहीं बनती। इससे "स्वकारणो से पदार्थ अविनश्वर अर्थात् नित्यस्वभाववाला उत्पन्न होता है।" यह बात प्रमाणबाधित है।
अब आप ऐसा कहेंगे कि "स्वकारणो से पदार्थ विनश्वरस्वभाववाला उत्पन्न होता है।" -
तो इस पक्ष में हमारे द्वारा माने गये सर्वपदार्थो का 'क्षणिकत्व' कोई भी विघ्न के बिना सिद्ध हो जाता है। अर्थात् हमारा क्षणिक सिद्धांत निर्बाध स्वरुप से सिद्ध होता है। इसलिये ही कहा है कि....
"पदार्थो के विनाश में पदार्थो की उत्पत्ति ही कारण मानी जाती है। (अर्थात् पदार्थ का ऐसा स्वभाव होता है कि उत्पत्ति की दूसरी क्षण में ही नाश हो जाना । इससे पदार्थ के नाश में उत्पत्ति कारण बनती है।) और जो पदार्थ उत्पन्न होने के बाद अनंतर क्षण में नष्ट नहीं होता, उसको बाद में कौन नष्ट करेगा ? (अर्थात् वह नित्य बन जायेगा। कभी भी नष्ट नहीं होगा। परन्तु वैसा तो है ही नहीं।)
नन्वनित्यत्वे सत्यपि यस्य घटादिकस्य यदैव मुद्गरादिसामग्रीसाकल्यं तदैव तद्विनश्वरमाकल्पते न पुनः प्रतिक्षणं, ततो विनाशकारणापेक्षाणामनित्यानामपि पदार्थानां न क्षणिकत्वमिति । तदेतदनुपासितगुरोर्वचः, यतो मुद्गरादिसन्निधाने सति योऽस्य घटादिकस्यान्त्यावस्थायां विनाशस्वभावः स स्वभावस्तस्यैवोत्पत्तिसमये विद्यते न वा । विद्यते चेत्, आपतितं तर्हि तदुत्पत्तिसमनन्तरमेव विनश्वरत्वम् । अथ न विद्यते स स्वभाव उत्पत्तिसमये, तर्हि कथं पश्चात्स भवेत् । अथेदृश एव तस्य स्वभावो यदुत कियन्तमपि कालं स्थित्वा तेन विनंष्टव्यमिति चेत, तर्हि मुद्गरादिसन्निधानेऽप्येष एव तस्य स्वभावः स्यात् । ततो भूयोऽपि तेन तावत्कालं स्थेयम् । एवं च मुद्गरादिघातशतपातेऽपि न विनाशो भवेत् । जातं कल्पान्तस्थायित्वं घटादेः । तथा च जगद्व्यवहारव्यवस्था विलोपपातकपङ्किलता । इत्यभ्युपेयमनिच्छुनापि क्षणक्षयित्वं पदार्थानाम् । प्रयोगस्त्वेवम् । यद्विनश्वरस्वभावं तदुत्पत्तिसमयेऽपि तत्स्वरूपं, यथान्त्यक्षणवर्तिघटस्य स्वरूपम् । विनश्वरस्वभावं च रूपरसादिकमुदयत आरभ्येति स्वभावहेतुः । तदेवं विनाशहेतोरकिंचित्करत्वात् । स्वहेतुत एव पदार्थानामनित्यानामेवोत्पत्तेः क्षणिकत्वमवस्थितमिति । A-8ननु यदि क्षणक्षयिणो भावाः, कथं तर्हि स एवायमिति ज्ञानम् । उच्यते । निरन्तरसदृशापरापरक्षणनिरीक्षणचैतन्योदयादविद्यानुबन्धाञ्च पूर्वक्षणप्रलयकाल एव दीपकलिकायां दीपकलिकान्तरमिव तत्सदृशमपरं
(A-85)- तु० पा० प्र० प० ।
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